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* सागारधर्म-श्रावकाचार *
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मजं विसय कसाया निद्दा विगहा य पंचमी भणिया ।
एए पंच पमाया, जीवा पाउंति संसारे ॥
अर्थात्-मदिरा आदि नशा करने वाले पदार्थों का सेवन, पाँच इन्द्रियों के २३ विषयों में लुब्धता, क्रोध आदि चार कषाय, निद्रा और स्त्रीकथा आदि चार निरर्थक विकथाएँ तथा विषय-वासनाजनक बातें, यह पाँच प्रमाद हैं । इन प्रमादों में से एक-एक प्रमाद का सेवन करने वाले भी अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हैं, तो पाँचों प्रमादों को सेक्न करने वालों की क्या दशा होगी? ऐसा विचार करके श्रावक को चाहिए कि वह पाँचों प्रमादों को कम से कम करने के लिए और अन्ततः पूरी तरह त्यागने के लिए यत्नशील बने । प्रमाद के दूसरे प्रकार से पाठ भेद कहे गये हैं । यथा
अएणाणं संसश्रो चेव, मिच्छाणाणं तहेव य । राग-दोसो महिझंतो, धम्मम्मि य अणादरो।। जोगाणं दुप्पणिहाणं, पमानो अट्ठहा भवे ।
संसारुचारकामेणं, सव्वहा वज्जियवो ॥ अर्थात्-(१) अज्ञान में रमण करना (२) वात-बात में वहम करना (३) पापोत्पादक कहानियाँ, कोकशास्त्र आदि असत् साहित्य को पढ़ना (५) धन-कुटुम्ब आदि में अत्यन्त आसक्त होना (५) विरोधियों पर तथा अनिष्ट वस्तुओं पर द्वेष धारण करना (६) धर्म, धर्मक्रिया एवं धर्मात्मा का प्रादर न करना और (८) खोटे विचार, खोटे उच्चार तथा खोटे आचार से तीनों योगों को मलीन करना, यह आठों प्रमाद संसार-सागर से पार होने की इच्छा रखने वालों को सर्वथा त्याग देने चाहिए। क्योंकि इनके सेवन से लाभ कुछ होता नहीं, उनसे कर्मबंध सहज ही हो जाता है ।
कितनेक लोग ताश, शतरंज, चौपड़ आदि के खेल में, इधर-उधर की गप्पें मारने में या खराब पुस्तकों के पढ़ने में ऐसे मग्न हो जाते हैं कि उन्हें समय का भी ध्यान नहीं रहता और खाना-पीना भी भूल जाते हैं।