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* सागारधर्म श्रावकाचार
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व्रतधारी श्रावक उत्कृष्ट हैं, पंच अणुव्रत आदि के धारक मध्यम हैं और सिर्फ सम्यक्त्व के धारक जघन्य हैं ।
श्रावक के गुणों का छन्द ( मनहर सवैया)
मिथ्यामत भेद टारी भया अणुव्रतधारी, एकादश भेद भारी हिरदे वहत है । सेवा जिनराज की है यही सिरताज की है, भक्ति मुनिराज की है चित्त में चहतु है । विष है निवारी रीति भोजन अभक्ष्य प्रीति, इन्द्रिन को जीति चित्त थिरता गहतु है । दया भाव सदा धरै मित्रता प्रमाण करे, पाप-मल-पंक हरे श्रावक सो कहतु है ॥
श्रर्थात्- (- सम्यक्त्व प्राप्त होने के पश्चात् जो श्रावक व्रत धारण करते हैं, वे मिध्यात्वमय समस्त रीति-रिवाजों का त्याग कर देते हैं और अणुव्रतों,
व्रतों तथा शिक्षाव्रतों का सम्यक् प्रकार से पालन करते हैं । अवसर प्राप्त होने पर श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का भी आचरण करते हैं। ऐसे धावक जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा में ही धर्म मानते हैं और सदैव निर्ग्रन्थ मुनिराजों की सेवा करते हैं। विषय कषाय को मन्द करने के लिए सदा उद्यत रहते हैं । जिह्वा-इन्द्रिय वश में होने से इन्द्रियों की लोलुपता का त्याग कर देते हैं और जितेन्द्रिय होने से चित्तवृत्ति को भी स्थिर रखते हैं । वे समस्त प्राणियों पर दयादृष्टि रखने वाले, सब पर मैत्रीभाव रखने वाले, अनाथ अपंग दुखी जीवों पर दया करके यथाशक्ति सहायता करने वाले होते हैं । कठोर-क्रूर वृत्ति का त्याग करके सदा नम्र भाव धारण करते हैं । जो इतने गुणों के धारक होते हैं वे श्रावक कहलाते हैं ।