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* जैन-तक्ष्य-प्रकाश
सिवाय मनुष्य मात्र में सद्गुण और अवगुण-दोनों पाये जाते हैं । अपनीअपनी धोती में सभी नंगे होते हैं । अर्थात् वीतराग के सिवाय कोई विरला ही होगा जिसमें कुछ दुर्गुण न हों। मगर दुर्गुणी मनुष्य अपने दुर्गुणों की
और तो लक्ष्य नहीं देता है, दूसरों के छिद्र खोजता है, दूसरों के अवगुण ग्रहण करता है और लड़ाई-झगड़ा हो जाने पर उसकी तथा उसके कुटुम्बियों को लघुता प्रकट करने के लिए उनके दोषों का बखान करने लगता है । यह कहता है—मेरे सामने क्या ऊँची नाक करके बोलता है ! हम तुझे और तेरे बाप-दादा को अच्छी तरह जानते हैं । अमुक अकार्य करने वाला तू ही तो है ! इस प्रकार के शब्द सुनकर वह बेचारा लन्मित हो जाता है। उसके हृदय को तीन आघात लगता है और कभी-कभी तो पास्मघात करने की भी नौबत आ जाती है।
___ इसके अतिरिक्त कोई दो व्यक्ति एकान्त में वात-चीत करते हों । उन्हें देखकर या उनकी अंगचेष्टा आदि देखकर उन पर शंका कर के राजा से चुगली कर दे कि-'अमुक आदमी राजद्रोह की बातें कर रहे हैं।' ऐसा करने से वे पकड़े जाते हैं और दुखी होते हैं। इसी प्रकार मित्रों के पारस्परिक प्रेम को भंग करने के अभिप्राय से इधर-उधर चुगली करके झगड़ा करा देते हैं। इस तरह अनेक तरीकों से दुष्ट जन दूसरों की गुप्त बातें प्रकट करके निन्द्रा करते है, अपमान करते हैं, फजीहत करते हैं, झगड़ा कराते हैं। ऐसे लोग भी कठोर कर्मों का बन्ध करते हैं। दोनों भवों में दुःख पाते हैं । ऐसा जानकर श्रावक जन सब को आत्मोपम अर्थात् अपने समान जान करके 'सागरवरगम्भीरा' बनते हैं। अर्थात उनके जानने, सुनने या देखने में किसी को कोई गुप्त बात आ गई हो तो वे कदापि मुख से बाहर नहीं निकालते हैं। इस प्रकार -सच्चा श्रावक वही है जो किसी की गुप्त बात को प्रकट करके उसे दुःख नहीं पहुँचाता।
__ (३) स्वदारमन्त्रभेद-अर्थात् अपनी झी के मर्म को प्रकाशित कारे तो अतिचार लगता है। स्त्री के हृदय में बात कम.टिकती है। वह अपने प्यारे पति पर विश्वास करके उसके समक्ष अपना हदय खोल देती हैं । मेसी