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8 जैन-तत्व प्रकाश
श्रावक एक रात्रि में दूसरी बार भी संभोग नहीं करता; क्योंकि तंदुलवेयालियपइना में कहा है कि एक बार मैथुन-सेवन करने के बाद १२ मुहूर्त पर्यन्त योनि सचित्त रहती है । उत्कृष्ट १००००० संज्ञी मनुष्य और असंख्य असंज्ञी मनुष्यों की उत्पत्ति होती है। दूसरी बार संयोग करने से
उस वक्त भी आयु न बँधे तो फिर शेष रही आयु के तीसरे भाग के शेष रहने पर ही आयु का बन्ध होता है। मानों इसी कारण करुणासागर जिनेन्द्र देव ने तथा आचार्यों ने पाँच पर्वी कायम की हैं, जिससे कि अशुभ प्रायु का बंध न हो जावे । उदाहरणार्थ-तृतीया और चतुर्थी तिथि के दो भाग गये कि पंचमी का तीसरा भाग अाया, षष्ठो और सप्तमी के दो भाग बीते कि अष्टमी का तीसरा भाग आ गया। नौवीं और दशमी बीती कि एकादशी का तीसरा भाग पा गया। द्वादशी और त्रयोदशी के दो भाग व्यतीत हुए कि चतुर्दशी का तीसरा भाग पाया। पूर्णिमा और अमावस्या के दिन पाक्षिक पर्व होता है । इन दिनों परभव की आयु का बंध होना सम्भव है, अतः सदैव बचे तो ठीक ही है अन्यथा इन दिनों तो अवश्य ही संसार के कार्य से विरक्त होकर दया, शील सन्तोष, सामायिक, पौषध आदि धर्मक्रिया का आचरण करना चाहिए। * गाथा-मेहुणसरणारूढो, नवलक्खं हणइ सुहुमजीवाणं ।
केवलिणा पर तं, सद्दहियवं सया कालं ॥ इत्थीए जोणीए संभवंति दुइंदियाइ जे जीवा । इक्को वादुगिण वा तिरिण वा, लक्खपुहुत्तं तु उक्कोसं।। पुरिसेण सह गयाए, तेसि जीवाण होइ उद्दवणं ।
वेणुगदिहतेणं तत्तायसिलागएणं च ।। अर्थात्-सर्वज्ञ प्रभु ने कहा है कि स्त्री की योनि में कभी एक, कभी दो, कभी तीन और कभी उत्कृष्ट नौ लाख वीन्द्रियादि सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते हैं। जिस प्रकार बाँस की नली में रई भरी हो और उसमें लोहे की तपी हुई सलाई डाली जाय तो वह रुई जल जाती है, उसी प्रकार स्त्री के साथ पुरुष का सम्बन्ध होते ही वे सब जीव मर जाते हैं। यह कथन सदा श्रद्धान करने योग्य है । और भी कहा है:
पंचिंदिय मणुस्सा, एगणरमुत्तणारिंगभमि । उक्कोसं नव लक्खा, जायते एगहेलाए ।
वलक्खाणं मज्झे, जायइ एगो दुण्हे य सम्मती । सेसा पुणरामेव य, विलयं वच्चंति तत्थेव ।।
-तंदुलपालिय।