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® जैन-तत्त्व प्रकाश
से इस लोक में अनेक सुखों का भोक्ता बन कर भविष्य में स्वर्ग तथा मोक्ष के सुखों का भी भोक्ता बन जाता है।
(४) चौथा अणुव्रत-स्वदारसन्तोष
समस्त शास्त्रों में ब्रह्मचर्य की महिमा का वर्णन किया गया है । भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य को समस्त तपों में उत्तम तप बतलाया है। ब्रह्मचर्य में अलौकिक प्रभाव है । ब्रह्मचर्य का प्रताप असीम है । ब्रह्मचर्य के प्रभाव से समस्त सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । आत्मा के कल्याण के लिए, मानसिक शक्ति के विकास के लिए और शारीरिक शक्ति को टिकाये रखने एवं विकसित करने के लिए ब्रह्मचर्य से बढ़ कर और कोई उत्तम साधन नहीं है। अतः मनुष्य को जहाँ तक संभव हो, पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए । मगर. यह आशा नहीं की जा सकती कि प्रत्येक गृहस्थ, साधु की भाँति पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करेगा, क्योंकि मोह का माहात्म्य बड़ा प्रबल है। मनुष्य गति में ही जीव में समस्त कर्मों के सर्वथा क्षय करने का सामर्थ्य। होता है और तभी, मोहनीय कर्म भी अपनी प्रबल सत्ता मनुष्यों पर आजमाता है। अर्थात् अन्य गतियों की अपेक्षा मनुष्य गति में मैथुन संज्ञा:: का उदय अधिक होता है। मनुष्य गति पाकर जीव यदि अपना आपा सम्भाल कर कर्म के वश में न फंसे तो मोक्ष प्राप्ति के अपने अभीष्ट अर्थ को सिद्ध कर सकता है। किन्तु प्रत्येक मनुष्य में इतनी शक्ति नहीं होती। कोई. कोई शूरवीर, धीर पुरुष ही ऐसा कर सकते हैं और वे साधुपना धारण कर लेते हैं । फिर भी श्रावकं जन अनादि काल के सम्बन्धी कर्मों से छुटकारा पाने के लिए प्रयत्न करते ही हैं और स्थूल मैथुन का त्याग करके स्वदारसन्तोषव्रत धारण करते हैं। पंचों की साक्षी से जिस स्त्री के साथ विधिपूर्वक विवाह हुआ हो वह स्वस्त्री कहलाती है और उसके अतिरिक्त अन्य समस्त
* नरक गति में भय संज्ञा की प्रबलता, तिर्यञ्चगति में आहार संज्ञा की प्रबलता, देवगति में परिग्रह संज्ञा की अपाता और मनुष्यगति में मैथुनसंज्ञा की प्रबलता होती है।