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® जैन-तत्व प्रकाश ®
जनता में व्यापारियों की प्रतिष्ठा नहीं रहती, जिससे धन्धे का नाश हो जाने का प्रसंग आ जाता है । साथ ही राजदण्ड आदि विपत्तियाँ भी भुगतनी पड़ती हैं। ऐसा जानकर श्रावक जन इस प्रकार के चोरी के सभी कार्यों का परित्याग कर देते हैं। .
(५) तत्प्रतिरूपकव्यवहार-अर्थात् सरीखी वस्तु मिलाकर बेचने से भी अचौर्य व्रत में अतिचार लगता है । लालची मनुष्य जिस रूप रंग की बहुमूल्य वस्तु होती है, उसी रूप-रंग की अल्प मूल्य की वस्तु उसमें मिलाकर, बहुमूल्य के भाव में बेचते हैं । हीरा, पन्ना, माणक, मोती आदि में भी ऐसी मिलावट होती है । इनमें की हुई मिलावट को कुशल जौहरी के सिवाय
और कौन पहचान सकता है ? इसी प्रकार गिरवी रखने वाले रखते कुछ हैं और उन्हें वापिस लौटाते कुछ हैं। बेचारे अपरीक्षक लोग इस बारीकी को समझ नहीं पाते हैं । इसी प्रकार घी में वनस्पति का तेल, मूंगफली आदि का तेल, शक्कर में आटा, दूध में पानी, अच्छे धान्य में खराब धान्य आदि सरीखी वस्तु मिला देते हैं। कितने ही लोग सुपारी आदि पर रंग चढ़ा कर, नये माल में मिला कर नये के भाव बेच देते हैं। कोई-कोई नमूना अच्छा दिखला कर खराब चीज दे देते हैं। इसी प्रकार चोरी की वस्तु का रूप बदल कर, उसे भाँग-तोड़ कर, गला कर या दूसरा रंग चढ़ा कर बेच देते हैं। कोई पशुओं का अंगोपांग छेदन करके रूप पलट कर बेच देते हैं। यह सब बड़ी चोरी कहलाती है। धर्मात्मा श्रावकों को यह सब चोरी के कर्म करना उचित नहीं है, अतः श्रावक इनका त्याग करते हैं।
__ अचौर्यव्रत के यह पाँच अतिचार हैं । श्रावक का कर्तव्य है कि अपने व्रत का निर्मल-निरतिचार रूप से पालन करने के लिए इन अतिचारों से सदैव बचता रहे । जो लोभ-लालच में फंसकर इन अतिचारों का सेवन करके अपने कर्त्तव्य से-धर्म से-च्युत होते हैं, उनका पतन अधिकाधिक होता ही जाता है। वे अतिचारों का सेवन करते-करते अनाचार का भी सेवन करने लगते हैं, जिससे व्रत सर्वथा भंग हो जाता है।