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® सागारधर्म-श्रावकाचार ®
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___ व्यापार में की जाने वाली इस चोरी और दगाबाजी ने व्यापार को भी बड़ी हानि पहुँचाई है। जनता में से व्यापारियों का विश्वास दिनों दिन उठता जाता है । और इससे व्यापारियों की प्रतिष्ठा को ही क्षति नहीं पहुँचती है, वरन् उनकी आय को भी क्षति पहुँच रही है । आजकल न्यायालय में न्यायाधीश लंगोटी लगाने वाले का जितना भरोसा करते हैं, उतना कड़े-कंठा पहनने वालों का नहीं करते हैं । यह थोड़ी शर्म की बात नहीं है । अतएव जाति और धर्म की शर्म रख कर तथा पाप से होने वाले भयानक फलों का खयाल करकं न्यायोपार्जित द्रव्य में ही सन्तोष धारण करना चाहिए।
कदाचित् दुष्काल आदि का प्रसंग आ जाय और वस्तु बहुत महँगी हो जाय तो श्रावकों का कर्तव्य है कि वे अपने धर्म का चमत्कार बतलाने के लिए ऐसे प्रसंग पर अधिक मूल्य न लेवें । इसी प्रकार दूसरे लोग कितना ही अधिक ब्याज क्यों न लेते हों, मगर श्रावकों को उनकी देखा-देखी नहीं करनी चाहिए, बल्कि साहूकारों में आम तौर से ब्याज का जो दर मुकर्रर हो उससे अधिक ब्याज नहीं लेना चाहिए । प्रति रुपया एक पैसे से अधिक ब्याज तो लेना ही नहीं चाहिए। इस प्रकार सन्तोष धारण करने से लोग समझेंगे कि जैन लोग बड़े दयालु और सदाचारी होते हैं । ऐसे कर्तव्य करके धर्म की प्रभावना करना श्रावक का खास कर्त्तव्य है ।
इस तीसरे अचौर्याणुव्रत का सम्यक प्रकार से आराधन करने वाला कदाचित् राजा के भण्डार में अथवा साहकार की सनी दुकान में चला जाय तो भी उस पर कोई अविश्वास नहीं करता । वह राजा का और पंचों का माननीय होता है । जगत् में उसकी कीर्ति विस्तार पाती है । वह सब का विश्वासपात्र होता है । उसकी न्याय से उपार्जन की हुई लक्ष्मी बहुत काल तक स्थिर रहती है, वृद्धि पाती है और सुखदायिनी होती है। इस व्रत को पालन करने वाला सदैव निश्चिन्त रहता है । उसके हृदय में दया भगवती का निवास होता है, वह व्रत-प्रत्याख्यान का निर्मल रूप से निर्वाह करता है । अनेक प्रकार के विनों से अपने आपको बचाता है और सन्तोष के प्रताप