________________
७३२ ]
* जैन-तत्व प्रकाश *
(8) द्विपद-चतुष्पदपरिमाणातिक्रम-द्विपद अर्थात् नौकर आदि का तथा चतुष्पद अर्थात् गाय, बैल, भैंस, अश्व आदि का जो परिमाण किया है, उसका आंशिक रूप से उल्लंघन करे तो अतिचार लगता है । गाय आदि पशुओं के बच्चों का, चतुष्पदों का परिमाण करते समय खयाल रक्खे तो ठीक है, अन्यथा ऐसी व्यवस्था करना चाहिए जिससे बच्चों को कष्ट न हो और परिमाण का उल्लंघन भी न हो । कदाचित् लूले-लंगड़े पशु को या मृत्यु के मुख से बचाये पशु-पक्षी को, जब वह अन्य स्थान में भेजने योग्य न हो तब तक दया के लिए, या रक्षा के निमित्त रख लिया जाय तो दोष नहीं है। लोभ की भावना से नहीं रखना चाहिए ।
(५) कुप्यधातुपरिमाणातिक्रम-अर्थात घर-बखेर के बर्तन-भांडे, पाट आदि मर्यादा से अधिक हो गये हों और उन्हें तोड़-फोड़ कर मिलावे या पुत्र आदि के नाम पर कर रक्खे तो अतिचार लगता है। अधिक की तो बात क्या, की हुई मर्यादा से अधिक एक सुई मात्र भी रखने से दोष का भाजन होना पड़ता है।
तृष्णा दुःखों का मूल है । तृष्णा प्रेरित होकर द्रव्य का उपार्जन करने के लिए क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण आदि के अनेक कष्ट सहन करने पड़ते हैं। जब द्रव्य की प्राप्ति हो जाती है तब भी उससे सुख या चैन नहीं मिलता। कुटुम्ब के और राज के अनेक झगड़े लग जाते हैं। चोरों का भय सताने लगता है। आग और पानी से भी द्रव्य की रक्षा करने की चिन्ता लगी रहती है। कृपण मनुष्य उसे खाने-खरचने में भी दुःख का अनुभव करते हैं । इतने पर भी वह द्रव्य स्थायी रूप से ठहरता नहीं है । व्यापार में घाटा लगने से, घर में आग लग जाने से, चोरी हो जाने से या कुटुम्बी जनों द्वारा बँटवारा करा लेने से अथवा अन्य किसी न किसी कारण से उस द्रब्य का नाश होता ही है । तब भी धन के स्वामी को घोर दुःख होता है । इस प्रकार धन, उपार्जन करते समय, रक्षा करते समय और नाश के समय दुःख ही दुःख देने वाला है। कदाचित् जीवन पर्यन्त बना रहे तो मृत्यु के समय उसे अवश्य ही