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* सागारधर्म श्रावकाचार *
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सम्मिलित करने पर दिशाओं की संख्या दस होती है । विस्तारपूर्वक दिशाओं की संख्या अठारह मानी गई है—४ दिशाएँ, ४ विदिशाएँ, ८ श्रांतरे, तथा ऊर्ध्वदिशा और अधोदिशा । *
यहाँ सर्व प्रथम कही हुई तीन दिशाओं की ही मुख्यता है । इन दिशाओं में गमनागमन करने की मर्यादा न होने से सारे जगत् में होने वाले पापकर्मों का हिस्सा लगता है, जैसे कि खिड़की और द्वार खुला रहने से घर में कचरा भरता रहता है । और दिशाओं की मर्यादा कर लेने से जितना क्षेत्र खुला रक्खा हो उतने के पाप का ही हिस्सा आता है, शेष समस्त लोक का आस्रव बन्द हो जाता है । श्रतएव श्रावक
(१) ऊर्ध्वदिशा का यथापरिमाण - अर्थात् ऊँची दिशा में गमन करने का परिमाण करे | जैसे- पहाड़ पर, वृक्ष पर, महल पर, मीनार पर, हवाई जहाज या विमान में बैठकर ऊंचे जाने का इच्छानुसार परिमाण करे ।
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(२) अधोदिशा का यथापरिमाण - अर्थात् नीची दिशा में गमन करने का परिमाण करे, जैसे—- तलघर, खान, कुवा, बावड़ी आदि में घुसने की मर्यादा करना ।
(३) तिर्थी दिशा का यथापरिमाण - अर्थात् पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में इतने कोस से आगे नहीं जाऊँगा, इस प्रकार प्रत्याख्यान करे । यह प्रत्याख्यान दो करण तीन योग से होता है। इस प्रत्याख्यान का उद्देश्य मर्यादित क्षेत्र से बाहर अठारह पापों से तथा पाँच अस्रवों से निवृत्त होना है । किन्तु किसी जीव को बचाने के लिए या साधु के दर्शन के लिए
* अठारह भावदिशाएँ इस प्रकार हैं - (१) पृथ्वी (२) पानी (३) अभि (४) वायु ये चार सख, (५) अप्रबीज (६) मूलबीज, (७) स्कंधबीज (८) पर्वबीज यह चार भेद वनस्पत्ति के (६) द्वीन्द्रिय (१०) त्रीन्द्रिय (११) चतुरिन्द्रिय (१२) पंचेन्द्रिय यह चार तिर्यञ्च, (१३) सम्मूच्छ्रिम (१४) कर्मभूमि (१५) कर्मभूमि (१६) अन्तद्वीप यह चार भेद मनुष्य के, (१७) नारक और (१८) देवता । इन योनियों और स्थानों में सकर्मी जीव गमनागमन करते हैं ।