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® जैन-तत्त्व प्रकाश
अथवा महान् उपकार के कार्य के लिए जाने से तथा दीक्षा धारण करने के पश्चात् उस प्रदेश में जाने से व्रत भंग नहीं होता।
दिशावत के पाँच अतिचार
(१-२-३) ऊर्ध्व-अधःतिर्यगदिशा-परिमाणातिक्रम-ऊंची, नीची और तिर्की दिशा में गमन करने का जो परिमाण किया है, उसका जान-बूझ कर उल्लंघन करने से अनाचार लगता है। अगर अनजान में, बनाये हुए निशान को भूलकर आगे चला जाय, मोटर या रेलगाड़ी में निद्रा आ जाने से आगे चला जाय, जहाज में तूफान आ जाने से या ऐसे ही किसी अन्य कारण से मर्यादित क्षेत्र के बाहर गमन हो जाय तो अतिचार लगता है । ऐसी स्थिति में भान होते ही मर्यादित क्षेत्र में आ जाना चाहिए। कोई वस्तु मर्यादित क्षेत्र के बाहर उड़कर चली गई हो या कुत्रां आदि में पड़ गई हो और लेने के लिए स्वयं जाय या किसी दूसरे को भेजे तो अतिचार लगता है, अगर बिना कहे कोई ला दे और उस वस्तु को ले ले तो अतिचार नहीं। - (४) क्षेत्रवद्धि-क्षेत्र में वृद्धि करे तो अतिचार लगता है। जैसे चारों दिशाओं में ५०-५० कोस क्षेत्र रक्खा हो और किसी समय पूर्व में १०० कोस जाने की आवश्यकता पड जाय तो सोचे-पश्चिम में जाने की मुझे आवश्यकता नहीं पड़ती है, अतः पश्चिम के पचास कोस पूर्व में मिला लूँ; और ऐसा सोच कर पूर्व में सौ कोस चला जाय तो अतिचार लगता है। श्रावक को ऐसा नहीं करना चाहिए ।
(५) सइअन्तरद्धा-संशय होने पर भी आगे चला जाय । चित्तभ्रम आदि के कारण विस्मरण हो जाय कि मैंने ५० कोस रक्खे हैं या ७५ कोस ? अथवा ५० कोस यहाँ पूरे हो गये हैं या नहीं ? इस प्रकार शंका होने पर आगे चला जाय तो अतिचार लगता है ।