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* सागारधर्म-श्रावकाचार ®
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त्यागना पड़ता है और उस समय त्यागने से ममता के कारण समाधिमरण नहीं हो पाता।
धन के इस वास्तविक स्वरूप को समझ कर श्रावक को धन संबंधी तृष्णा का त्याग कर देना चाहिए । पूरी तरह त्याग न कर सके तो उसे मर्यादित अवश्य करना चाहिए और धीरे-धीरे पूरी तरह उससे छुटकारा पा लेना चाहिए। श्रावक को विचारना चाहिए कि द्रव्य की कितनी ही वृद्धि क्यों न हो जाय, मेरे किस काम की है ? घर में हजार घोड़े हुए तो भी सवारी तो एक ही घोड़े पर की जा सकेगी ! बीसों मकान होने पर भी रहने के लिए तो एक ही मकान अपेक्षित है ! मोती, हीरे आदि का ढेर होगा तो उससे क्या लाभ है ? दाल-रोटी की जगह हीरे-मोती तो खाये नहीं जा सकते । खाने के लिए तो पाव भर आटा ही काफी है ! फिर अधिक द्रव्य बढ़ा कर क्यों व्यर्थ परेशानी मोल लूँ ? इस प्रकार विचार कर श्रावक को मर्यादाशील बनना चाहिए।
द्रव्य की प्राप्ति पुण्य और धर्म के प्रताप से होती है । अतएव जिस पुण्य और धर्म के प्रताप से धन आदि की प्राप्ति हुई है, उसे कदापि भूलना नहीं चाहिए और जितना हो सके धर्म के और पुण्य के मार्ग में अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग करना चाहिए । स्मरण रक्खो, ज्ञान की वृद्धि, धर्म की उन्नति दया और दान आदि सुकृत्य में जितना द्रव्य लगाया जायगा, उतना ही द्रव्य तुम्हारा है। जो द्रव्य बचा रहेगा उसके स्वामी तो तुम्हारे जीते जी या मरे बाद दूसरे बन बैठेंगे । हाँ, उसका उपार्जन करने में जो-जो पाप तुमने किये होंगे उनकी गठड़ी तुम्हारे साथ जायगी । जब परलोक में तुम अपने पापों का फल भुगत रहे होओगे तब दूसरे लोग तुम्हारे कमाये धन से मजे उड़ाते होंगे। वे तुम्हारे दुःखों में कोई हिस्सा नहीं बँटाएँगे और न तुम्हारी सहायता करने आएँगे। ऐसी स्थिति में बुद्धिमान् पुरुष के लिए यह उचित नहीं है कि वह कुटुम्ब परिवार के व्यर्थ मोह में फँस कर, कष्टकर उपायों से धनोपार्जन करके पाप-कर्मों का संचय करे और जान बूझ कर अपनी आत्मा का अनिष्टसाधन कर ले! 'अतएव अपने लौकिक कर्त्तव्यों