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® सागारधर्म-श्रावकाचार *
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समझ कर तथा कितनेक अभिमानी लोग अपना बड़प्पन सिद्ध करने के लिए अपनी नामबरी के वास्ते अपने ग्राम बालों का देश वालों का लग्नसंबंध कराते हैं। यह काम श्रावक के लिए उचित नहीं है । यह मैथुनवृद्धि का कार्य है अतः ऐसा करने से संसार की वृद्धि होती है।
___ इसके अतिरिक्त पति-पत्नी में कदाचित् अनबन हो जाय या दो में से किसी की मृत्यु हो जाय तो अपयश, क्लेशवृद्धि और निन्दा होती है। इत्यादि बुराइयाँ जानकर अन्य का विवाह कराने का त्याग करते हैं । खुद के पुत्र, पुत्री आदि का विवाह कराये विना काम नहीं चलता, अतः अपने कुटुम्बी जनों के सिवाय अन्य का संबंध मिलाने के झगड़े में नहीं पड़ते हैं।
व्रत ग्रहण करने के पश्चात् अपना खुद का दूसरा विवाह करना भी परविवाहकरण अतिचार कहलाता है ।
(४) तीव्र कामभोगाभिलाषा-अर्थात् कामभोग करने की तीव्र अभिलाषा करना भी अतिचार है । श्रोत्रेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रिय का विषय काम कहलाता है और घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय तथा स्पर्शनेन्द्रिय के विषय भोग कहलाते हैं।
जैसे-(१) श्रोत्रेन्द्रिय से वीणा, हारमोनियम, फोनोग्राफ, बैंड आदि वाद्यों की सहायता से छह रागों और छत्तीस रागिनियों के श्रवण में लीन रहना । (२) चक्षुरिन्द्रिय से स्त्रियों को, खास कर उनके गुप्त अंगोपांगों को देखने में, तथा नग्न चित्र, सिनेमा, नाटक आदि देखने में लुब्ध होना । (३) घ्राणेन्द्रिय से इत्र, फूल आदि सूंघने में लुब्ध रहना (४) रसनेन्द्रिय से दूध, दही, घृत, तेल, मिठाई-इन पाँच विगयों के भोगने में तथा मक्खन, मांस, मदिरा और मधु रूप चार महाविगयों के भोगने में एवं मनोज्ञ भोजन में आसक्त होना। और (५) स्पर्शनेन्द्रिय से वस्त्र, आभूषण, शय्या, स्त्री आदि के सेवन में आसक्त होना । इस प्रकार पाँच इन्द्रियों के विषयभोग में तीव्र आसक्ति होना काम-भोग की तीव्र अभिलाषा कहलाती है।