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® जैन-तत्त्व प्रकाश
मूल ही जिनका भोजन था और मत्तिका का लेपन ही जिनका शृङ्गार था, ऐसी हीन स्थिति के लोग जब राजा बन बैठते हैं, तब भी उन्हें तृप्ति नहीं होती । उस समय भी वे अपनी राजसम्पत्ति की वृद्धि के लिए अपने आश्रितों से द्रोह करते हैं और लाखों-करोड़ों मनुष्यों एवं पशुओं का अनिष्ट कर डालते हैं । ऐसे तृष्णाशील मनुष्यों को कदाचित् सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य प्राप्त हो जाय तब भी उनकी तृष्णा शान्त होने वाली नहीं है । ऐसी हीन स्थिति के लोग इतनी ऊँची स्थिति पर पहुँच कर भी जब तृप्त नहीं होते तो हजारपति लखपति होकर और लखपति करोड़पति होकर क्या तृप्त हो सकता है ? कदापि नहीं । तृप्ति धन में नहीं है, वह तो मन में होती है । मन में जब सन्तोष की भावना उदित होती है तभी तृप्ति आती है । अतएव विवेकशील पुरुषों को प्राप्त हुए धन से ही तृप्त हो जाना चाहिए और सारा जीवन धन के लिए ही समर्पित नहीं कर देना चाहिए ।
कोई-कोई लोग सोचा करते हैं कि हम धन का संचय करेंगे तो हमारे बाल-बच्चे सुखी रहेंगे। मगर ऐसा सोचने वालों को इस पर ध्यान देना चाहिए कि:
पूत कपूत तो क्यों धन संचे ?
पूत सपूत तो क्यों धन संचे ? अर्थात्-अगर पुत्र कपूत होगा तो धन का संग्रह करना वृथा है, क्योंकि वह संचित किये हुए धन को नष्ट कर देगा। और यदि पुत्र सपूत होगा तो न्याय-नीति के अनुसार चल कर वह स्वयं अपना निर्वाह कर लेगा, उसके लिए धन-संग्रह करना वृथा है।
___ इस कारण तू पुत्र के लिए द्रव्य संचय करने का कष्ट क्यों उठाता है ? क्यों तृष्णा की आग में पड़कर सन्ताप भोगता है ? क्यों व्यर्थ कर्मबन्धन करता है ? निश्चय समझ ले कि संसार में कोई किसी को सुखी या दुःखी नहीं बना सकता। सब जीव अपने-अपने कर्मों के अनुसार ही सुख या दुःख भोगते हैं। कई गरीब माता-पिता के पुत्र धनवान बन गये हैं और