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® जैन-तत्त्व प्रकाश
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कितनेक लोग विषयासक्त हो कर स्नान-शृंगार आदि के द्वारा अपने रूप को अत्यन्त आकर्षक बनाते हैं । ऐसे निर्लज्जतापूर्ण बारीक वस्त्र पहनते हैं कि जिनसे गुप्त अंग भी नज़र आते हैं । इत्र आदि कामोत्तेजक वस्तुओं का सेवन करते हैं और रसायन, गुटिका आदि कामोत्तेजक पदार्थों का उपभोग करते हैं और इस प्रकार अपनी विषयवासना को जानबूझ कर बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं। मगर भोगोपभोग में लुब्ध बनने से चिकने कर्मों का बंध होता है। कदाचित्र रसायन आदि फूट निकले तो कुष्ट आदि अनेक प्रकार के राजरोगों से ग्रसित होते हैं। सुजाक, शूल, चित्तभ्रम, कम्म वायु, मूर्छा, सुस्ती,विकलता, क्षय, निर्बलता, आदि अनेक रोगों से सड़-सड़ कर अकाल में ही मृत्यु के शिकार बनते हैं । शास्त्र में कहा है:कामे पत्थेमाणा अकामा जंति दोग्गई ।
-उत्तराध्ययनसत्र। कामभोग की अभिलाषा रखने वाला, कामभोग का सेवन किये विना ही मर कर नरक गति-दुर्गति में जाता है।
ऐसा जानकर श्रावक जन इस अतिचार से अपने आपको बचा कर विषयवासना बढ़ाने वाले कामों से दूर रहते हैं। बल्कि निरन्तर ब्रह्मचर्य की भावना को बढ़ाने के लिए उद्यत रहते हैं। वे कामभोग की इच्छा को कम करने के लिए स्वस्त्री के साथ भी एक शय्या पर शयन नहीं करते हैं । आयंबिल, उपवास आदि तप करते रहते हैं और ऐसे साहित्य एवं सन्तोंसत्तियों के चरित आदि का पठन-श्रवण करते रहते हैं जिससे अन्तःकरण की विषय-वासना कम हो, ब्रह्मचर्य की ओर प्रीति बढ़े और चित्त में कामविचार की लहरें उत्पन्न न हों।
ब्रह्मचर्य रूप श्रेष्ठ व्रत का पालन करने वाले की देवादिक भी सेवा करते हैं। उसकी कीर्ति विश्वव्यापिनी हो जाती है। उसकी बुद्धि, बल, रूप, तेज आदि की वृद्धि होती है। दुष्टों द्वारा किये जाने वाले मंत्र, तंत्र, मूठ, कामण श्रादि का उस पर किंचित् भी असर नहीं होता। व्यन्तर