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* जैन-तत्व प्रकाश
अर्थात्-पुरुष के भाग्य को मनुष्य की तो बात ही क्या, देव भी नहीं जान सकता है ! गायें और बकरियाँ चराने वाले भी राजा-महाराजा बन जाते हैं। जिसने मर्यादा की होगी वह अधिक प्राप्ति के समय सन्तोष धारण करके अपनी मर्यादा में ही रहेगा, उससे अधिक ग्रहण नहीं करेगा। वह और अधिक परिग्रह नहीं बढ़ाएगा तो उतने पाप से ही उसकी आत्मा बचेगी । मगर प्रत्याख्यान किये विना सन्तोष होना कठिन है । इस प्रकार मर्यादा करके तृष्णा को रोकने से सन्तोष की प्राप्ति होती है । मर्यादाशील पुरुष सोचता है-अब हाय-हाय करने से क्या लाभ है ? और वह सन्तोष के परम सुख का भागी बन जाता है ।* ऐसा समझ कर श्रावक निम्नलिखित नौ प्रकार से परिग्रह का परिमाण करते हैं:
(१) खेत्त यथा परिमाण-अर्थात खुली भूमि का इच्छित परिमाण करे । वर्षा के पानी से जहाँ धान्य की उत्पत्ति होती है वह खेत कहलाता है । कूप, बावड़ी, तालाब आदि जलाशय के पानी से जहाँ धान्य उपजता है वह अडाण कहलाता है। जहाँ अनेक प्रकार के मेवा, फल, फूल आदि की उत्पत्ति होती है वह बाग कहलाता है । जहाँ शाक सब्जी, भाजी आदि होती है वह बाड़ी कहलाती है। जहाँ घास उत्पन्न होता है उसे वन कहते हैं। इस सब खुली भूमि का त्याग करे तो अच्छा है, सर्वथा त्याग न कर सके तो उक्त खेत प्रादि की लम्बाई-चौड़ाई तथा संख्या का परिमाण करके अधिक रखने का प्रत्याख्यान करे और उससे अधिक न रक्खे, बल्कि कम करता जाय।
(२) वत्थुयथापरिमाण-अर्थात् गृह आदि ढंकी हुई भूमिका का इच्छित परिमाण करे। एक मंजिल वाला मकान घर कहलाता है, दो या
* जह जह अप्पो लोहो, जह जह अप्पो परिग्गहारंभो ।
__ तह तह सुहं पवडढई, धम्मस्स य होइ ससिद्धी ।। अर्थात्-जैसे-जैसे लोभ कम होता जाता है और ज्यों-ज्यों आरंभ-परिग्रह कम होता जाता है, त्यों-त्यों सुख की वृद्धि होती है और धर्म की सिद्धि होती जाती है।