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* सागारधर्म-श्रावकाचार *
स्त्रियाँ परस्त्री कहलाती हैं। श्रावक अपनी स्त्री 'मैं ही सन्तुष्ट रहता है और परस्त्री को माता-बहिन के समान समझता है ।
__ स्वस्त्रीसन्तोषी श्रावक विषयभोग में अत्यन्त आसक्त नहीं बनता । विषयासक्ति से चिकने कर्मों का बंध होता है। विषयों में अतिशय आसक्त होने वाला पुरुष विवेक को भी भूल जाता है और वैसी दशा में गर्मी, प्रमेह आदि अनेक भयंकर रोगों का शिकार बनता है। विषयासक्ति बुद्धि को मन्द कर देती है, चल की हानि करती है। ऐसा जान कर श्रावक रूक्ष वृत्ति धारण करते हैं। वे भली-भाँति जानते हैं कि हजारों वर्षों तक देवागनाओं के साथ एक बार नहीं*, अनन्त बार भोग भोगे हैं, फिर भी तृप्ति नहीं हुई, तो अब मनुष्य संबंधी अशुचि और अल्पकालीन भोगों से क्या तृप्ति होने वाली है ? सन्तोष तो भोगों का त्याग करने से ही हो सकता है। 'इस प्रकार विचार करके श्रावक सन्तोष धारण करते हैं । वे परस्त्री की तो सर्वथा त्याग करते हैं और स्वस्त्री का भी द्वितीया, पंचमी, अष्टमी, एकादशी चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा तथा उद्दिष्टपर्व अर्थात् तीर्थंकरों के पंच कल्याणक की तिथियों में तथा दिन के समय सेवन न करके ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। दिन में स्त्रीसंग करने से 'निर्बलता, खराव सन्तान की उत्पत्ति, आयु की क्षीणता आदि अनेक हानियाँ होती हैं । द्वितीया, पंचमी आदि तिथियों में स्त्रीप्रसंग करने से कुगति की बायु का बंध होता है ।
* वैमानिक देव के २००० वर्ष पर्यन्त, ज्योतिषी देव के १५०० वर्ष पर्यन्त, भवनपति देव के १००० वर्ष पर्यन्त और वाणव्यन्तर देव के ५०० वर्ष पर्यन्त भोग-संयोग
- द्वितीया, पंचमी आदि पाँच पा स्थापित करने का कारण इस प्रकार है:असंख्यात वर्ष की आयु वाले नारक, देव और भोगभूमिज (युगल) मनुष्य की आयु जब छह महीना शेष रहती है तब उनकी आगामी भव की आयु बंधती है। और संख्यात वर्ष की भायु वाले तिर्यञ्चों तथा मनुष्यों की आयु तीसरा भाग शेष रह जाने पर बंधती है। अर्थात् जब उनकी भुज्यमान आयु के दो भाग भ्यतीत हो जाते हैं और एक भाग शेष रह जाता है तव भागामी भव की आयु का बंध होता है। कदाचित् स समय आयु न बंधे तो उस तीसरे भाग के भी दो भाग बीत जाने पर और एक भाग शेष रहने पर भायु बँधती है । यदि