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* जैन-तत्त्व प्रकाश *
बन्द कर देता है । इसी प्रकार कितनेक मुनीम, गुमाश्ते, पड़ोसी वगैरह या उसी मकान में रहने वाले लोग मालिक की गैरमौजूदगी में, ताले में लगने वाली दूसरी चाबी लाकर उससे अथवा कील आदि से ताला खोल डालते हैं। घर में से सार-सार माल निकाल लेते हैं और फिर जैसे का तैसा ताला बन्द कर देते हैं । जब घर का मालिक आता है और अपनी रक्खी हुई वस्तुएँ घर में नहीं पाता है तब चिन्ता में पड़ जाता है । मगर वह करे तो क्या करे ? किसका नाम ले ? कदाचित् वह समझ जाय और किसी का नाम भी लेवे तो चोरी करने वाला क्यों कबूल करेगा ? इस प्रकार विश्वासघात करने वाले चोरी के कृत्य इह भव में तथा परभव में बड़े ही दुःखदायी होते हैं । ऐसा जानकर श्रावक इन कर्मों का भी परित्याग करते हैं।
(५) पड़ी हुई वस्तु के धनी को जान करके भी ग्रहण करे, अर्थात् संयोगवश किसी की कोई वस्तु रास्ते चलते गिर पड़ी हो, अथवा कोई कहीं रखकर भूल गया हो और श्रावक की दृष्टि उस पर पड़ जाय और वह जान जावे कि यह वस्तु फलाने की है, तो उसे उठा कर, छिपा कर अपनी बना कर रखना उचित नहीं है। बल्कि उसी वक्त चार मनुष्यों को साक्षी बना कर उस वस्तु को सम्भाल कर रक्खे। जब उसका मालिक आवे तो उसे सौंप देवे । कदाचित् मालिक का पता न लगे तो उस वस्तु का जितना द्रव्य प्राप्त हो, वह सब धर्म के कार्य में लगा दे।
उक्त पाँचों प्रकार की चोरी करने वाले लोग राजदण्ड के पात्र होते हैं, लोकनिन्दा के पात्र बनते हैं और मर कर नरक के दुस्सह दुःखों के पात्र बनते हैं । चोरी का कार्य लोक-विरुद्ध है और धर्मविरुद्ध है, ऐसा जानकर श्रावक इस प्रकार की चोरी का खर्वथा परित्याग कर देते हैं।
तीसरे व्रत के पाँच अतिचार
(१) तेनाहडे (स्तेनाहृत-अर्थात् चोर द्वारा चुराई हुई वस्तु को ग्रहण करना पहला अतिचार है। कितने ही लोग चोरी के कर्म का तो त्याग कर