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* सागारधर्म-श्रावकाचार *
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योग्य-अयोग्य कर्त्तव्य करके द्रव्योपार्जन करे । यह द्रव्य समय आने पर मेरे काम आएगा, ऐसा सोचकर अपने प्राणप्यारे द्रव्य को किसी मित्र या साहकार पर विश्वास लाकर गप्त रूप से रख जाय । वह मित्र या साहकार उस द्रव्य में लुब्ध होकर उसे छिपा ले या तोड़-भांग कर या गला कर रूपान्तरित कर ले । धरोहर रखने वाला जब माँगने आवे तब मुकर जाय । 'उलटा चोर कोतवाल को दंडे' इस कहावत को चरितार्थ करता हुआ, अपनी चोरी को छिपाने के लिए उलटा माँगने वाले को झठा और बेईमान बतलावे, उसकी फजीहत करे, क्योंकि कोई गवाह-साक्षी तो है ही नहीं ! यह कितना घोर अन्याय है ! इस प्रकार का अत्याचार करने से बेचारा धन का मालिक दिङ्मूढ़ बन जाता है । कोई-कोई तो पागल तक हो जाते हैं। कितनेक झूर-झर कर मरते है और किसी-किसी की तीव्र आघात लगने के कारण तत्काल मृत्यु हो जाती है । ऐसे विश्वासघाती मित्रद्रोही जनों के पाप का घड़ा जब फूटता है तो वे प्रथम तो इसी भव में जनसमाज के तिरस्कार के पात्र, घृणास्पद और अनेक कष्टों को भोगने वाले बनते हैं। और फिर परलोक में भी अनेक दुःखों के भाजन बनते हैं। वे धरोहर दबाने वाले आगामी भव में दरिद्र, कंगाल और निपूते होते हैं तथा नरक एवं तिर्यच गनि के दुःख भोगते हैं।
स्मरण रखना चाहिए कि अन्याय-अनीति से उपार्जित धन बहुत दिनों तक नहीं ठहरता है । वह गांठ की पूँजी भी साथ लेकर चला जाता है। मतः श्रावक जन ऐसे हराम के धन की स्वप्न में भी इच्छा नहीं करते।
अन्यायोपार्जित वित्तं; दश वर्ष हि तिष्ठति ।
प्राप्ते त्वेकादशे वर्षे, समूलं हि विनश्यति ॥ अर्थात-अनीति से कमाया धन अधिक से अधिक दस वर्ष तक ठहरता है। ग्यारहवाँ वर्ष लगने पर मूल पुञ्जी सहित नष्ट हो जाता है ।
x धरोहर छिपाने का काम यद्यपि चोरी में सम्मिलित है, मगर इसमें झूठ बोलने की मुख्यता होने के कारण यहाँ झूठ में शामिल किया गया है।