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* सागारधर्म-श्रावकाचार *
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है। गृहस्थ लोग स्थावर जीवों की हिंसा को त्यागने में समर्थ नहीं होतेसांसारिक कार्यों में स्थावर जीवों की हिंसा होना अनिवार्य हैं। श्रावकों को प्रायः पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति की हिंसा का प्रसंग आता ही रहता है। अतएव वह स्थूलहिंसा का ही त्याग करता है । लट आदि द्वीन्द्रिय, कीड़ी आदि त्रीन्द्रिय, भौंरा, खटमल आदि चतुरिन्द्रिय और मनुष्य पशु, पक्षी, आदि पंचेन्द्रिय जीवों की जान-बूझकर, संकल्प करके अर्थात् 'मैं इसे मारूँ' इस प्रकार मारने की भावना से दो करण तीन योग से अर्थात् मन से हिंसा करने का तथा कराने का विचार न करे, वचन से हिंसा करने और कराने को न कहे, काय से हिंसा न करे तथा न करावे । करना कराना अनुमोदन करना, यह तीन करण कहलाते हैं और मन, वचन, काय-यह तीन योग कहलाते हैं । पहला व्रत दो करण और तीन योग से ग्रहण किया जाता है।
___ पहले व्रत के श्रागार-(१) गृहस्थ के लिए त्रस जीव की हिंसा के कार्य की अनुमोदना से बचना कठिन है; क्योंकि नौकर आदि के द्वारा कराये हुए गृहकार्यों में किसी जीव की हिंसा हो जाय तो भी गृहस्थ उस कार्य को अच्छा बतलाता है । इसके अतिरिक्त राजा अगर बड़ा भारी शिकार खेल कर आया हो या संग्राम में शत्रु-सेना का संहार करके आया हो तो उसकी प्रशंसा करनी पड़ती है, भेंट देनी पड़ती है और कदाचित् उत्सव भी करना पड़ता है । इत्यादि कारणों से गृहस्थ त्रस जीव की हिंसा के अनुमोदन का प्रागार रखता है।
(२) अपने शरीर में अथवा माता, पिता, स्त्री, पुत्र आदि स्वजन के शरीर में, या दास, दासी, गाय, भैंस, घोड़ा आदि आश्रितों के शरीर में कृमि आदि जीवों की उत्पत्ति हो जाने पर जुलाब वगैरह औषध, मरहमपट्टी आदि उपकार करना पड़ता है।
(३) परचक्री आदि शत्रु तथा चोर, डकैत और कोई मारने के लिए आया हो तो गृहस्थ को अपनी तथा अपने आश्रित कुटुम्बियों की रक्षा के लिए संग्राम करना पड़ता है-उसे मारना पड़ता है।