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® जैन-तत्त्व प्रकाश दूध, दही, घी, तेल, छाछ, पानी, आचार-मुरब्बा आदि प्रवाही या अर्धप्रवाही पदार्थों के वन तथा दीपक, चूल्हा, सिगड़ी, खाली बर्तन आदि उघाड़े रखने से उनमें चूहा आदि त्रस जानवर पड़कर मर जाते हैं । (१३) प्रक्की के मुद्दे, जवार के हुरडे, बाजरा के पुख, चने के बूट, गेहूँ की बालें, वेर, नागर बेल के पान, मूले, मैथी की भाजी, मीठे फल, सड़ी-गली वस्तु, इत्यादि में त्रस जीव अधिकता से पाये जाते हैं। इनको मुंजने से तथा भक्षण करने से उनमें रहे हुए त्रस जीवों का घात हो जाता है। (१४) पाय, भैंस, अश्व आदि के रहने के स्थान में धुंआ करने से मच्छर आदि जीवों की हिंसा होती है । (१५) जूते के तले में कीलें नालें लगी होती हैं। उसे पहन कर चलने से पैर के नीचे त्रस जीव कुचल जाते हैं ।
ऊपर जिन कार्यों का उल्लेख किया गया है, उन सब का गृहस्थ सर्वथा त्याग तो नहीं कर सकता, फिर भी उनमें सावधानी अवश्य रखी जा सकती है । अगर पहले से प्रमाद त्याग कर सावधानी रखी जाय तो उक्त हिंसा से श्रावक का बचाव हो सकता है । सच्चे श्रावक को विवेकपूर्वक अतना के साथ प्रवृत्ति करके इस हिंसा से निवृत्त होना चाहिए ।
यद्यपि श्रावक स्थावर जीवों की हिंसा से सर्वथा निवृत्त नहीं हो सकता तथापि उसे निरर्थक हिंसा से तो बचना ही चाहिए । जहाँ तक संभव हो, किसी भी जीव की हिंसा न हो, ऐसा श्रावक का सदैव लक्ष्य रहता है। अत: निम्नोक्त प्रकार से श्रावक को मर्यादित होने का प्रयत्न करना चाहिए:
(१) पृथ्वीकाय-सुरंगें लगा कर जमीन फोड़ने का, नमक चार, खड़िया मिट्टी, हिंगलु, गेरू, हिरमिची, मुलतानी मिट्टी आदि पृथ्वीकाय
(अडिल्ल छन्द) जल.में झीणा जीव थाग नहीं कोयरे, अनछाना जल पिये.सो पापी होय रे । गाढे कपड़े छाने बिन नहीं पीजिये, पर जीवानी-पतन युक्ति से कीजिथे।।