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सागारधर्म-श्रावकाचार 8
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उन्हें ऊन या सन की पूंजनी से पूँजे विना काम में लाने से उनका घात हो जाता है। (8) चूले पर, परिंडे (पानी के स्थान) पर, चक्की पर, ऊखल पर, चन्दोवा नहीं बाँधने से ऊपर चलने वाले जीव उनमें गिर पड़ते हैं और मर जाते हैं तथा वस्तु को भी खराब करते हैं। (१०) बिना छना पानी काम में लाने से तथा पानी छानने के बाद छन्ने में रही जिवानी की यतना न करने से तथा जिवानी को दूसरे जलाशय में डालने से बहुत प्रस जीवों की हिंसा होती है।* (११) किराने के, धान्य के, मील गिरनी के, मिठाई के, तेल घी आदि रसों के, लाख चपड़ी आदि के, लकड़ी-छाने के, भाजीफल-मेवे आदि के व्यापार में त्रस जीवों की अधिक हिंसा होती है । (१२)
सूक्ष्माणि जन्तूनि जलाश्रयाण,
जलस्य वर्णाकृतिसंस्थितानि ! तस्माज्जलं जीवदयानिमित्तं, निरअशा परिवर्जयन्ति ॥
-भागवत पुराण। अर्थात-छोटे-छोटे जन्तु जल के काश्रित रहते है। उनका वर्ण और उनकी भाकृति जल के ही समान होती है। अतएव जीवों की दया के निमित्त शूरवीर पुरुष सचित्त तथा अनछना पानी पीना छोड़ देते हैं।
संवत्सरेण यत्प:पं, कैवतस्य हि जायते।
एकाहं तदवाप्नोति, “रपृतजलसंग्रहात् ।।
अर्थात-मछली मारने वाले शीवर को एक वर्ष में जितना पाप लगता है, उतना पाप एक दिन बिना छना पानी काम में लाने या पीने से होता है।
विशत्यंगुल मानं तु, त्रिंशदंगुलमायतम् । तद्वस्त्रं द्विगुणीकृत्य, गालयेज्जलमापिवन् । तस्मिन् वस्त्र स्थितान् जीवान्, स्थापयेज्जमध्ये तु । एवं कृत्वा पिवेत्तोयं, स याति परमा गतिम् ।।
-महाभारत। अर्थात्-वीस अंगुल चौड़े और तीस अंगुल लम्बे वस्त्र को दोहरा करके पानी छान कर पीना चाहिए। पानी छानते समय वस्त्र में जो जीव रह जाएँ उन्हें उसी जलाशय में स्थापित कर देना चाहिए, जिससे वह पानी निकाला गया हो। इस विधि के अनुसार जो जल पीता है, वह परमगति को पास होता है।