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* जैन- तव प्रकाश
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(१६) उत्तम - श्रावक मिध्यात्वी की अपेक्षा अनन्त गुणी विशुद्ध पर्याय का धारक होने के कारण उत्तम है ।
(१७) क्रियावादी - पुण्य-पाप के फल को मानने वाला तथा बंधमोच को मानने वाला होने के कारण श्रावक क्रियावादी होता है।
(१८) आस्तिक - श्रीजिनेन्द्र भगवान् के वचनों पर श्रावक को परिपूर्ण प्रतीति होती है, अतएव वह आस्तिक होता है। वह आत्मा के अनादि अनन्त अस्तित्व को तथा परलोक को मानता है, इस कारण भी वह आस्तिक कहलाता है ।
(१६) आराधक - श्रावक जिन श्राज्ञा के अनुसार धर्मक्रिया करने के कारण श्राराधक कहलाता है ।
(२०) जिनमार्ग का प्रभावक - श्रावक मन से सब जीवों पर मैत्रीभाव रखता है, गुणाधिक पर प्रमोदभाव रखता है, दुखी जीवों पर करुणाभाव रखता है और दुष्टों पर मध्यस्थ भाव रखता है । वचन से तथ्य और पथ्य वाणी का प्रयोग करता है और सम्यग्दृष्टि से लेकर सिद्ध भगवान् पर्यन्त गुणवानों का गुणकीर्तन करता है, धन से धर्मोचति के कामों में उदारता दिखलाता है, विवेकपूर्वक द्रव्य का निरन्तर सद्व्यय करता है, अतएव वह जिनशासन का प्रभावक होता है ।
(२१) अर्हन्त का शिष्य - साधु अर्हन्त भगवान् के ज्येष्ठ शिष्य हैं और श्रावक लघुशिष्य होते हैं, अतः श्रावक अर्हन्त भगवान् का शिष्य कहलाता है ।
उक्त २१ प्रकार के गुणों के धारक तथा २१ लक्षणों से युक्त जो होते हैं, वही ऊँची श्रेणी के श्रावक कहे जाते हैं। पहले कहा जा चुका है कि श्रावक के व्रत नाना प्रकार के होते हैं और इस कारण श्रावकों की अनेक श्रेणियाँ होती हैं। उत्कृष्ट, मध्यम और नगन्य मेद करने पर बारह