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जैन-तत्र प्रकाश
करके उसे भी कम करता जाता है, कुव्यापारों से द्रव्योपार्जन करने की इच्छा भी नहीं करता है, अतः वह अल्पपरिग्रही होता है ।
(४) सुशीलता - श्रावक परखीगमन का त्यागी तो होता ही है, स्वस्त्री में भी मर्यादाशील होता है, इसलिए शीलवान् कहलाता है । तथा आचार विचार की शुद्धता होने से सुशील होता है ।
(५) सुव्रत -- ग्रहण किये हुए व्रतों का, प्रत्याख्यान का, नियम को निरतिचार और चढ़ते परिणामों से पालन करता है, अतः श्रावक 'सुव्रत' कहलाता है ।
(६) धर्मनिष्ठता - श्रावक धर्म-कार्यों में निष्ठ होता है; नित्य-नियम दि का विधिपूर्वक पालन करता है और अपने प्रत्येक जीवन- व्यवहार में Taare रखता है । अतएव वह धर्मनिष्ठ होता है ।
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(७) धर्मवृत्ति - श्रावक अपने तन मन और वचन से अधर्म में प्रवृत्ति नहीं करता, लोकनिन्दित कार्य नहीं करता, उसके तीनों योग धर्ममार्ग में प्रवृत्त हों, ऐसी आकांक्षा रखता है।
(८) कल्प उग्रविहारी — श्रावकधर्म के जो-जो कल्प अर्थात् आचार हैं, उनमें उग्र अर्थात् श्रप्रतिहत विहार करने वाला अर्थात् परीषह एवं उपसर्ग आने पर भी अपने आचार के विरुद्ध कार्य नहीं करने वाला होता है ।
(E) महा संवेगविहारी – श्रावक का लक्ष्य सदा निवृत्ति मार्ग की ओर ही रहता है । वह संसार में रहता हुआ भी संसार में रचा- पचा नहीं रहता, अतः महासंवेगविहारी कहलाता है ।
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(१०) उदासीन — घर-गृहस्थी का निर्वाह करने के लिए श्रावक को जो हिंसामय कृत्य करने पड़ते हैं, उन्हें करता हुआ भी वह उन्हें भला नहीं ता। उन्हें करके प्रसन्नता का अनुभव नहीं करता, बल्कि उदासीन (च) वृत्ति रखने वाला होने के कारण उदासीन कहलाता है ।