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* सागारधर्म - श्रावकाचार
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की संगति होती है उनके गुणों को ग्रहण करते-करते अनेक गुणों का पात्र बन जाता है। इसके अतिरिक्त श्रावक अनेक शास्त्रों और ग्रन्थों का पठनपाठन करने वाला होता है । उत्तराध्ययनसूत्र के इक्कीसवें अध्ययन में कहा है - 'निग्गंथे पावणे सावए से वि कोविए' अर्थात् चम्पा नगरी के पालित श्रावक निर्ग्रन्थ- प्रवचन (शास्त्र) में कुशल है । तेईसवें अध्ययन में कहा है'सीलवंता बहुस्सुया' अर्थात् राजीमतीजी शीलवती और बहुत श्रुतों को जानने वाली थी । ऐसे बहुत-से उदाहरण और प्रमाण मौजूद हैं, जिनसे विदित होता है कि प्राचीन काल के श्रावकों और श्राविकाओं को अनेक शास्त्रों का ज्ञान होता था। ऐसा जान कर सामायिक से लेकर सब अंगों का तथा सम्यक्त्व से लेकर सर्वविरति तक की क्रिया का अभ्यास करतेकरते, सर्व गुणों का धारक बन जाना चाहिए ।
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जो उक्त इक्कीस गुणों के धारक होते हैं, वे श्रावक कहे जाते हैं। ऐसा जान कर श्रावक कहलाने वालों का कर्त्तव्य है कि उक्त इक्कीस गुणों में से यथासम्भव अधिक से अधिक गुणों को धारण करें और सच्चे श्रावक बनकर अपनी और धर्म की प्रतिष्ठा बढ़ावें ।
श्रावक के २१ लक्षण
(१) अल्पइच्छा - श्रावक धन की तथा विषयभोगों की तृष्णा को कम करके अल्प तृष्णा वाले होते हैं । प्राप्त धन में तथा प्राप्त विषयभोग की सामग्री में भी अत्यन्त लुब्ध- आसक्त नहीं होते ।
(२) अल्पारम्भ - जिस कार्य को करने से पृथ्वीकाय आदि छहों कायों का विशेष आरम्भ होता है, ऐसे कार्यों की वृद्धि नहीं करते, किन्तु प्रतिदिन कमी करते जाते हैं और अनर्थदण्ड से तो सदैव अलग ही रहते हैं । इस कारण वे अन्पारम्भ वाले होते हैं ।
(३) अल्पपरिग्रह — श्रावक के पास जितनी सम्पति होती है उसके उपरान्त वह मर्यादा कर लेता है और पहले के परिग्रह का सत्कार्यों में व्यय