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8 जन-तत्व प्रकाश ®
उपकारक मान कर, उसके उपकार से उऋण होने का यथाशक्ति प्रयत्न करे ।*
(२०) परहितकर्ता-कहा है-'परोपकारः पुण्याय' अर्थात् पर का उपकार करना पुण्य है । ऐसा जानकर यथाशक्ति, यथोचित रूप से श्रावक सदैव परोपकार करता रहता है । कदाचित् परोपकार के कार्य में अपने को किसी प्रकार का कष्ट या दुःख हो या हानि होती हो तो भी वह परोपकार से मुख नहीं मोड़ता।
(२१) लब्धलक्ष्य-जैसे लोभी को धन की तृष्णा होती है और कामी को स्त्री की लालसा होती है, उसी प्रकार श्रावक को गुणों की लालसा होती है। निरन्तर थोड़े-थोड़े गुणों का अभ्यास करते-करते मनुष्य अच्छा गुणवान् बन जाता है। ऐसा जानकर श्रावक नित्य नये-नये गुणों का अभ्यास करते रहने से लब्धलक्ष्य हो जाता है। जिन-जिन गुणी जनों
* श्रीस्थानांगसूत्र में तीन जनों से उऋण होना अर्थात् उनके उपकार का बदला चुकाना मुश्किल कहा है:-(१) गर्भ धारण से लेकर स्वयं समर्थ होने तक अनेक प्रकार के कष्ट सहन करके, अनेक उपचारों द्वारा रक्षण, पालन-पोषण करने वाले माता-पिता को कोई पुत्र स्वयं स्नान करावे, वस्त्राभूषणों से अलंकृत करे, इच्छित भोजन करावे और उनकी आज्ञानुसार चल कर उन्हें सन्तुष्ट रक्खे, यहाँ तक कि उन्हें पीठ पर उठा कर सर्वत्र लिये फिरे तो भी उनके उपकार का बदला नहीं चुका सकता। हाँ, जिनेन्द्र प्रणीत धर्म उनको अंगीकार करा कर अन्त में यदि समाधिमरण करावे तो जरिन हो सकता है।
(२) किसी सेठ ने दरिद्री को द्रव्य की सहायता देकर व्यापार में लगा दिया हो और श्रीमान् बना दिया हो। कर्मयोग से वह सेठ स्वयं दरिद्र अवस्था को प्राप्त हो जाय । उस समय वह उपकृत नया श्रीमान् यदि अपना सारा धन उस सेठ को अर्पित कर दे और अपने माता-पिता के कथनानुसार उसकी उम्र भर सेवा करे तो भी जरिन नहीं हो सकता। हाँ, जिनप्रणीत धर्म में स्थापित करके अन्त में समाधिमरण करावे तो अरिन हो सकता है।
(३) किसी धर्माचार्य का उपदेश श्रवण करके कोई मनुष्य, देवपद को प्राप्त हमा। वह देव उन भाचार्य की यथोचित सेवा-भक्ति करे, परीषह, उपसर्ग, दुर्भिक्ष आदि से उनका संरक्षण करे, अन्य प्रकार से वैयावृत्य करे तो भी वह अरिन नहीं होता। हो, कदाचित्
आचार्य के परिणाम संयम से यो धर्म से विचलित हो जाएँ और उन्हें यथोचित उपाय करके बहे धर्म में स्थिर करें तो ऊरिन हो सकता है।