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*सव्यक्त *
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भास आभिग्राहक मिथ्यात्वीवत् दुराग्रह करके, शास्त्रों के अर्थ को विपरीत परिणत करके, भोले जीवों को भ्रम में फंसाने के लिए कहते हैं कि किसी मरते जीव को बचाओगे तो यह जिंदा रह कर जो-जो पाप करेगा उसकी क्रिया बचाने वाले को लगेगी । इत्यादि कुत्रोध से मनुष्यों के हृदय में विद्यमान अनुकन्या को उजाड़ने का प्रयत्न करते हैं । वे स्वयं घोर कर्मों का बंध करते हैं और पाप डांता पांडे ले डूबे जजमान' इस कहावत के अनुसार अपने भोले भक्तों को भी टुबाते हैं । सम्यक्त्वी जीव तो जानते हैं कि 'करंता सो भरंता' अर्थात् जो पाप करेगा वही भरेगा, उसी को उसका फल भोगना पड़ेगा।
यह बात तो सभी जैन मानते हैं कि पाँचवें आरे के जीव मोक्ष नहीं जाते । किन्तु धर्मकरणी के फलस्वरूप स्वर्ग की प्राप्ति होती है और स्वर्ग के देव अव्रती तथा अनेक पापाचरण करने वाले होते हैं। अब विचार कीजिए कि किसी साधु के उपदेश से किसी पुरुष ने धर्म का आचरण किया और अन्त में मर कर वह देव हुआ। देवगति में पहुँच कर वह देवांगनाओं के साथ भोगविलास करेगा तो उसका पाप क्या साधुजी को लगेगा, जिनके उपदेश के निमित्त से वह देवलोक में गया है ? अगर इस प्रकार पाप लगने लगे तो तीर्थंकरों और साधुओं का धर्मोपदेश देना उलटा पापजनक हो जायगा ! अतएव जैसे तीर्थंकर भगवान् और साधु जीवों को दुःख से मुक्त करने के लिए धर्मोपदेश करते हैं, उसी प्रकार सम्यक्त्वी तथा श्रावकजन भी अनाथों, अपंगों और दुःख में पड़े हुए अन्य जीवों को दुःख से छुड़ाने के आशय से उन्हें छुड़ाते हैं, वे पाप के भागी कदापि नहीं हो सकते । उन्हें
के श्रागे भएड म अर पा रहा है। प्रातःकाल ५०० साधुओं के परिवार के साथ प्राचार्य
आये । उनकी परीक्षा के लिए राजा ने, जिस जगह वे ठहरे थे, उसके पास पास, रात्रि में कोयले बिछवा दिये। उन्हें देख-देख कर जीवों की शंका होने के कारण साघु तो वापिस लौट गये और प्राचार्य उन कोयलों को खूदते हुए चले गये । राजा समझ गया कि यही भएड सभर के समान अनुकम्पा-रहित अभब्य जीव मालूम होता है । प्रातःकाल सब साधुओं को समझा कर उसे प्राचार्य पद से हटाया और योग्य साधु को प्राचार्य बनाया । इस प्रकार अभव्य जीव के हृदय में अनुकम्पा नहीं होती है।