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ॐ जन-तत्व प्रकाश
को जलाता है, वही मुनि है। (६) मनुष्य की आयु अन्य जान कर क्रोष को जीतने वाला ही सन्त है। (७) क्रोध आदि कषायों के वशीभूत बना जगत् दुखी हो रहा है, ऐसा विचार करने वाला ज्ञानी है। (८) कपाय को उपशान्त करके जो शान्त बने, वही सुखी है । (8) जो क्रोधामि से प्रज्वलित नहीं बनता वही विद्वान् है।
(१) पहले थोड़ा और फिर बहुत, यो क्रम से धर्म की और तप की वृद्धि करना चाहिए । (२) शान्ति, संयम, ज्ञान इत्यादि सद्गुणों की वृद्धि करने का सदैव उद्यम करना चाहिए। (३) मुक्ति का मार्ग बड़ा विकट है। (४) ब्रह्मचर्य को पालन करने का और मोष प्राप्त करने का सब से बड़ा उपाय तपश्चर्या ही है। (५) जो संयमधर्म से भ्रष्ट बने हैं वे किसी काम के नहीं हैं। (६) मोह रूप अंधकार में डूबे जीव जिनाज्ञा का लाभ प्राप्त नहीं कर सकते। (७) अतीत जीवन में जिन्होंने जिनाज्ञा का माराधन नहीं किया, वे अब क्या करेंगे ? (८) जो ज्ञानी बन कर अपनी आत्मा को भारम्भ से अलग रखते हैं, वही प्रशंसनीय होते हैं । (8) क्योंकि अनेक प्रकार के दुःख प्रारम्भ से ही उत्पन्न होते हैं । (१०) धर्मार्थी जन प्रतिबन्ध का त्याग कर एकान्त मोक्ष को ही अपना लक्ष्य बनाते हैं । (११) कुतकर्म: के फल अवश्य भुगतने पड़ेंगे, ऐसा जान कर कर्म का बन्धन करते डरना चाहिए, और (१२) जो सदुद्यमी, सत्य धर्मावलम्बी, प्राप्त हुए ज्ञानादि गुणों में रमण करने वाला, पराक्रमी, आलकल्याण की ओर दृढ़ लक्ष्य रखने वाला, पापकार्य से निवृत्त और यथार्थ लोकस्वरूप का दर्शक होता है, उसे कोई भी दुखी नहीं कर सकता।
यह तत्वदर्शी महापुरुषों के अभिप्राय हैं। जो इनके अनुसार चलेगा वह आधि, व्याधि, उपाधि का क्षय करके अक्षय, अन्यावांध मुख का भोक्ता बनेगा।
. शास्त्रों और ग्रन्थों में सम्यक्त्व का जैसा स्वरूप दर्शाया गया है, - यहाँ कथन किया गया है। सम्परत्व, धर्म की पहली पंक्तिः सकी है। अर्थात् सम्पपूर्वक किया हुआ कर्माचरण ही मनन्त कर्म