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हैं जो निरन्तर अप्रमादी रह कर, सावधान बने हुए धर्मपथ में विचरते हैं । इति प्रथमदेशक ।
* सम्यक्व *
(१) कर्मबंधन के कारण भी सम्यक्त्वियों के लिए समय पर कर्म तोड़ने के कारथ बन जाते हैं । (२) मिथ्यात्वियों के लिए कर्म तोड़ने के कारण भी कदाचित् कर्मबन्ध के कारण बन जाते हैं । (३) जितने कर्मबंधन के हेतु हैं, उतने ही कर्म तोड़ने के भी हेतु हैं । (४) जगत् के जीवों को कम से पीड़ित होते देख कर कौन धर्म करने को उद्यत न होगा ? सुखार्थी जीव तो अवश्य ही उद्यत होगा । (५) विषयासक्त और प्रमादी जीव भी जैन शास्त्रों को श्रवण करके धर्मात्मा बन जाते हैं । (६) अज्ञानी मृत्यु के ग्रास बने हुए भौभारम्भ में तल्लीन होकर मंत्र- भ्रमण की वृद्धि करते हैं । (७) कितने ही जीव नरक के दुःख के भी शौकीन हैं, जो पुनः पुनः नरक-गमन करते हुए भी वहाँ से तृप्त नहीं होते । (८) क्रूर कर्म करने वाले दुःख पति हैं और छोड़ने वाले सुख पाते हैं। (६) दस पूर्वी के धारक श्रुतज्ञानी का arti hai के कथन के समान ही प्रमाणभूत होता है । (१०) हिंसा के hi भी दोष नहीं मानते वही अनार्य हैं । (११) ऐसे अमाव की कर्मन पागल के लीप के समान है । (१२) जीव का घात करना तो दूर रहा, जो दुःख भी नहीं देते वही आर्य हैं । (१३) तुम्हें सुख छ लगता है कि दुःख ? यह प्रश्न अज्ञानियों से पूछने पैर, उनके उत्तर से ही धर्म का निश्रय हो जायगा ।
(१) जो पाखण्डी जनों के चाल-चलन पर लक्ष्य नहीं देते, नही धर्मात्मा हैं । (२) हिंसा को दुःखदायी समझकर हिंसा का त्याग करे । पर ममत्व न करे | धर्म के तव का ज्ञाता बने । कपटहीन क्रिया का ate करे, और कर्म तोड़ने में सदैव तत्पर रहे, वही सम्यक्त्वी है । (३) जहाँ तक सम्भव हो, वही धर्मात्मा है । (४) बिनेश्वर की आज्ञा का अकेली जाने, तपश्चरण करके तन को तपाचे, पुराने काष्ठ के समान शेर के मम
किसी को जो दुःख न दे, पालन करे, आत्मा को वही पण्डित है । (५) जो
'से त्याग करता है और तप की अग्नि में कर्मी