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* सागारधर्म श्रावकाचार *
युक्ताहारविहारश्रार्यसमितिः प्राज्ञः कृतज्ञो वशी, शृण्वन् धर्मविधिं दयालुरघभीः सागारधर्मं चरेत् ।।
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- सागारधर्मामृत
अर्थात् न्याय से द्रव्योपार्जन करने वाला हो, गुणों जनों का सत्कार' करनें वाला हों, मधुर वाणी बोले, धर्म, अर्थ और काम को परस्पर विरुद्ध रूप से यथोचित सेवन करने वाला हो, धर्मसाधन में सहायक पत्नीवान् तथा स्थानवान्- हो, लज्जावान् हो, श्रावक धर्म की मर्यादा के अनुसार आहार और व्यापार आदि व्यवहार करने वाला हो; सत्पुरुषों की संगति करनेवाला हो, बुद्धिमान - विवेकशील हो; अन्यकृत- यकिंचित् उपकार को भी महान मानने वाला कृतज्ञ हो, अपनी इन्द्रियों को और मन को काबू में रखने वाला हो, सत् शास्त्रों को श्रवण करने वाला हो, दयालु हो और पापकृत्यों से डरने वाला हों, यह सब गुण श्रावकों के लिए आदरणीय है। जो इन गुणों से युक्त होता है, वही वास्तव में गृहस्थधर्म का पालन कर सकता है ।
(१) अंगार का अर्थ हैं- घर । जो घर-गृहस्थों में रह कर धर्माराधन करते हैं उन्हें 'सागार' कहते हैं और उनका धर्म 'सागारधर्म कहलाता है । व्यवहार में कहा जाता है कि साधु के व्रत तो मोती के समान अखंडित रूप' में ही ग्रहण किये जाते हैं । साधु सर्वथा प्रकार से अर्थात् तीने करण और तीन योग से सावद्य योग का प्रत्याख्यान करते हैं और पाँचों महाव्रतों के धारकही होते हैं। एक-दो महाव्रतों का धारक साधु नहीं कहलाता है । इस प्रकार साधु के व्रत अखण्डित रूप में ग्रहण किये जाने के कारण तथा साधुः के व्रतों में किसी प्रकार का आगार न होने के कारण और साधु घर त्यागी होने के कारण अनगार कहलाते हैं । किन्तु श्रावक के बाद सुवर्ण के समान होते हैं । तात्पर्य यह है कि मोती के समान ही सोने को अखंडित रूप में ग्रहण करना अनिवार्य नहीं हैं। सोना माशा, दो माशा, तोला, सौ तोला, जितनी इच्छा हो और जितने दाम पास में हों, उतना खरीद सकते हैं। इसी प्रकार श्रावक भी इच्छानुसार व्रत ग्रहण कर सकते हैं। इच्छा हो तो एक राधास्य करे, इच्छा हो तो दो व्रत धारण करें, यावत् किसी को इच्छा
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