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* जैन-तत्त्व प्रकाश
हो तो बारह व्रत धारण करे । इसी प्रकार इच्छा हो तो एक करण, एक योग से और इच्छा हो तो तीन करण तीन योग से व्रतों को ग्रहण कर सकता हैं । तात्पर्य यह है कि श्रावक के व्रतों में ऐसा आग्रह नहीं है कि इतने व्रतों को और इतने करण-योग से ही ग्रहण करना चाहिए । इस कारण से भी गृहस्थ के धर्म को 'सागारधर्म' कह सकते हैं। अर्थात् आगार युक्त व्रत के. धारक व पालक श्रावक कहलाते हैं ।
(२) उक्त सागारधर्म के पालक का दूसरा नाम श्रावक शब्द 'थ' धातु से बना है, जिसका अर्थ है श्रवण करना-सुनना । अर्थात् जो शास्त्रों को श्रवण करने वाले हैं, उन्हें श्रावक कहते हैं । व्यवहार में श्रावक शब्द का अर्थ इस प्रकार है:
श्रद्धालतां श्राति शृणोति शासनं, दानं वपेदाशु घृणोति दर्शनम् कुन्तत्यपुण्यानि करोति संयमं तं श्रावकं प्राहुरमी विचक्षणाः ।।
अर्थात-जो श्र-श्रद्धावान हो या शास्त्र को श्रवण करे, व-दान का वपन करे या विवेकवान् हो, क-पाप को काटे या क्रियावान् हो, वह श्रावक है। आशय यह है कि जो शुद्ध श्रद्धा से युक्त हो और विवेकपूर्वक क्रिया करे वह श्रावक है ।
(३) श्रावक का तीसरा नाम 'श्रमणोपासक' भी है । श्रमण का अर्थ है-साधु और उपासक अर्थ है- भक्त । अर्थात् जो साधुओं की सेवाभक्ति करे वह श्रावक कहलाता है ।*
श्री ठाणगिसूत्र में चार प्रकार के श्रमणोपासक कहे हैं:
चत्वारि समणोवासगा पएणचा, तंजहा-अम्मापिउसमाणा, भाउसमाया मित्तसमाणाः सवत्तिसमाणा।
अर्थात्-भगवान् ने चार प्रकार के श्रमणोपासक कहे हैं। वे इस प्रकार हैं:(१) माता-पिता के समान-जिस प्रकार माता-पिता अपने पुत्र की सार संभाल करते हैं, उसी-प्रकार कितने ही श्रावक, साधु की तरफ से किसी भी प्रकार का उपकार प्राप्त किये।