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8 जन-तत्वप्रकाश®
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का तथा अप्रत्याख्यानावरण चौकड़ी का-इस प्रकार ग्यारह प्रकृतियों का क्षयोपशम होने से और व्यवहार में २१ गुण, २१ लक्षण, १२ व्रत और ११ प्रतिमा आदि.गुणों को स्वीकार करने से श्रावक का पद प्राप्त होता है। इन सबका विवेचन आगे क्रम से किया जाता है।
श्रावक के २१. गुण
अखुद्दो रूववं पगइसोमो लोगपियाओ। अकूरो भीरू असढो दक्खिएण लज्जालु दयालु ॥ता मज्झत्थो सुदिट्ठी, गुणानुरागी सुपक्खजुत्तो सुदीह । विसेसन्नू वुड्ढानुगो विणीय कयएणु परहियकत्ता लद्धलक्खो ॥२॥
(१) अक्षुद्र-दुःखप्रद स्वभाव वाले-ओछी प्रकृति वाले को क्षुद्र कहते हैं। श्राबक अपना अपराध करने वाले को भी दुःखप्रद नहीं होता है, तो
औरों का तो कहना ही क्या है ? अर्थात् किसी को भी दुःखप्रद न होने से श्रावक अक्षुद्र होता है।
(२) रूपवान्-'यथाऽऽकृतिस्तथा प्रकृतिः' अर्थात् जैसीःशरीर की
(३) कौले के समान-जैसे कीला एक बार जहरें गाड़ दिया जाता है, वहीं से इधर-उधर नहीं सरकता है, उसी प्रकार कितनेक श्रावक अपने ग्रहण किये कदाग्रह को नहीं छोड़ते हैं । चर्चा-वार्ता में अपना ही कक्का पक्का करने का प्रयत्न करते हैं। मैं जो कहता हूँ सो ही सच्चा, ऐसे हठी होते हैं।
(४) तीखें कॉटे के समान-जैसे लगा हुआ कॉटा खटकता है, दुख देता है, विषैला कॉटा अंग को सड़ा देता है, उसी प्रकार कितनेक श्रावक धन के अभिमान से तमा प्रास किये हुए ज्ञान के गर्व से गर्वित बने हुए, कॉटे के समान चुभने वाले वचन बोलाकार साधु का मन दुखाते हैं और रुष्ट होकर साधु का समूल नाश करने के लिए भी तैयार हो जाते हैं।
शास्त्र में कहहुए इन आठ प्रकार के श्रावकों में से माता-पिता के समान, माई के स, पिंकेसमान और प्रदर्श के समान तो अच्छे है, किन्तु 'सोत के समान, पताका के समान, कीले के समान और कंटक के समान बुरे है । ऐसा कदापि नहीं जाना चाहिए