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* सागारधर्म-श्रावकाचार *
प्राकृति होती है । वैसी उस मनुष्य की प्रकृति होती है । इस कथन के अनुसार श्रावक पूर्वोपार्जित पुण्य के प्रभाव से हस्त-पाद आदि पूर्ण अंगों वाला होता है । और कान, आँख आदि इन्द्रियाँ भी उसकी परिपूर्ण होती हैं। वह सुन्दर प्राकृति वाला, तेजस्वी और सशक्त शरीर वाला होता है ।
(३) प्रकृति-सौम्य-जैसे ऊपर से सुन्दर रूप वाला होता है, उसी प्रकार शान्त, दान्त, क्षमावान्, शीतलस्वभावी, मिलनसार, विश्वसनीय आदि गुणों से भीतर से भी सुन्दर होता है ।
(8) लोकप्रिय-इहलोक, परलोक और उभयलोक से विरुद्ध कार्यों का त्यागी होने से सब को प्रिय होता है, गुणी जनों की निन्दा, दुर्गुणियों की तथा मूरों की हँसी-दिल्लगी, पूज्य पुरुषों के प्रति मत्सरता-ईर्षा, बहुतों के विरोधी से मित्रता, देश के सदाचार का उल्लंघन, सामथ्र्य होने पर भी दूसरों की सहायता न करना, इत्यादि कार्य लोकविरुद्ध गिने जाते हैं, तथा ठेकेदारी, जंगल कटवाना, साँप-विच्छू आदि को मारना इत्यादि कार्य इहलोक से विरुद्ध नहीं गिने जाते ,तथापि परलोक में दुःखप्रद होते हैं, और सात व्यसनों का सेवन* दोनों लोकों से विरुद्ध और दुःखप्रद कर्म हैं।
द्यूतं च मांसं च सुराच वेश्या,
पापर्धिचौय पर-दारसेवा। एतानि सप्त व्यसनानि लोके,
घोरातिघोरं नरकं नयन्ति ।। (१) हार-जीत के जितने खेल तथा काम है, वे सब जुत्रा में गिने जाते हैं। जैसे ताश का खेल श्रीर सट्ठा आदि व्यापार । यह जुआ इसलिए कहलाता है कि सद्गुणों से तथा सुख-सम्पत्ति से मनुष्य को जुश्रा (जुदा-अलग) करके दुगुणी और दुखी बना देता है। जोबस व्यसन का शिकार होता है उसके धन का और इज्जत का नाश हो जाता है । वह राजा का तथा पंचों का अपराधी बनता है और नरक आदि दुर्गत्तियों में जाता है।
(२) मास का आहार भी हिंसा का वर्द्धक, प्रकृति को क्रूर बनाने वाला तथा कोढ़ शादि रोगों का उत्पादक होता है । मांसमोजी लोग पशुओं के और कदाचित् मनुष्यों के भी घातक बन जाते हैं और भागे नाक-निगोद के दःख भोगते है।