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® जैन-तत्त्व प्रकाश
भी अनादि है । ऐसी आस्था रखकर किसी के बहकाये बहकना नहीं । सम्यक्त्व में दृढ़ रहकर, आत्मा का परम कल्याण कर परमानन्दी परम सुखी बनना चाहिए।
इस समय जैन और विशेषतया साधुमार्गी जैन ऐसे शिथिल बन गये हैं कि गोबर के कोले के समान-जिधर नमाओ उधर ही नम जाते हैं और नर्मदा नदी के गोटे (गोलमटोल पत्थर) की तरह, जिधर लुढ़काओ उधर ही लुढ़क जाते है। इसी कारण महाप्रभावशाली जैनधर्म के धारक होकर
और अलोकिक प्रभाव से परिपूर्ण नमस्कारमंत्र का स्मरण करने वाले होते हुए भी प्रतिदिन इज्जत से, जनसंख्या से, सुख से और धर्म से अवनति को प्राप्त हो रहे हैं। वे अनेक प्रकार के दुःखों से दुखित बने प्रज्वलित हृदय देखे जाते हैं। यह देखकर खेद और आश्चर्य होता है । चारों खंधों का धारण करना, दुष्कर व्रताचरण करना, लम्बी-लम्बी तपस्या करना, सामायिक, पौषधवत आदि करना, इन सब व्यावहारिक क्रियाओं में वे सब से
आगे देखे जाते हैं, मगर श्रद्धा दृढ़ता के अभाव में उस करणी का परिपूर्ण फल प्राप्त नहीं कर पाते हैं। पर्याप्त सज्ञान के प्रभाव से यश और पूजा के भूखे बन कर करणी करते हैं, अत: मानों करोड़ों का माल कौड़ियों में गवा देते हैं । इसीलिए चेतावनी देिवी है कि भव्य जीवो देह, धन, यश, और विषय-सुख की प्राप्ति तो अनन्त वार हो चुकी है । उससे आत्मा का कोई प्रयोजन पूरा नहीं हुआ। 'सद्धा परमदुल्लहा' अर्थात् संसार में आत्मा को सच्ची श्रद्धा प्राप्त होना बहुत कठिन है । क्रिया करने में तो महान् परिश्रम उठाना पड़ता है सो तो कर लेते हो मार क्रिया का सच्चा और परिपूर्ण फल देने वाली तथा बिना किसी परिशम के धारण की जा सकने वाली आस्था में शिथिल बनना होगा यह बाथर्य और अखेद की बात है। भाइयो । स्वेतो, बेलोको सौपाय से अापको इस समय सच्चे धर्म की प्राधि हुई है जो धन, सकसामादि की इच्छा-का-परित्याग करना अवाशीद औरयसति करनी करके उसके महान फालको