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* सम्यक्त्व *
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(५) श्री महावीर ने तपश्चर्या को धर्म का आवश्यक अंग और मुक्ति का कारण कहा है, जब कि बुद्ध ने तपश्चर्या को व्यर्थ बतलाया है ।
(६) श्री महावीर स्वामी का निर्वाण पावापुरी में हुआ था और बुद्ध की जीवन-लीला का संहरण कुडिगुंड में हुआ था।
इनके अतिरिक्त और भी अनेक बातें हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि महावीर स्वामी और बद्ध दो अलग-अलग थे। महावीर स्वामी जैनधर्म के प्रचारक थे और बुद्ध, बौद्धधर्म के संस्थापक थे। जैनधर्म में हिंसा के मूल कारण मांसभक्षण की स्पष्ट मनाई की गई है, किन्तु बुद्ध ने सीधा तैयार किया हुआ मांस ग्रहण कर लेना निर्दोष बतलाया है। जैनसिद्धान्त स्याद्वादमय है, बौद्धमत एकान्त क्षणिकवाद का प्ररूपण करता है । जैनधर्म आत्मा को अनादि-अनन्त द्रव्य स्वीकार करता है, बौद्धधर्म ऐसा नहीं मानता । वह अनात्मवादी है। महावीर स्वामी ने परलोक सम्बन्धी स्पष्ट विवेचन किया है, जब कि बुद्ध ने ऐसी बातों में मौन धारण किया।
मांसभक्षण की स्वतन्त्रता होने के कारण पौधर्म का मांसाहारी देशों में प्रचार हो गया है. और इन्द्रियों पर काबू रखने का विधान करने वाले जैनधर्म के अनुयायी कम रह गये हैं। कहावत है
खाते पीते हर मिले तो हम से कहना,
और सिर साठे हर मिले तो चुपके रहना । अतएव निश्चित रूप से मानना चाहिए कि इस युग में जैनधर्म भगवान् ऋषभदेव से चला आ रहा है और वेद उसके बहुत पीछे बने हैं । यही कारण है कि वेदों में जैन तीर्थकरों के नामों का उल्लेख मिलता है । भगवान ऋषभदेष असंख्य वर्ष पहले हो चुके हैं। यही कारण है कि जैनधर्म की उत्पति का कोई समय है ही नहीं; क्योंकि यह अनादि है। सत्य अनादि है; वस्तु का स्वरूप अनादि है और 'वत्युसहावो धम्मो' अर्थात् वस्तु का स्वरूप ही धर्म है, इस सिद्धान्त को स्वीकार करने वाला धर्म जैनधर्म