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उक्त सम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्था, यह पाँच लक्ष्य जिसमें पाये जाते हों, उसी को सच्चा सम्यग्दृष्टि समझना चाहिए । सातवाँ बोल - भूषण पाँच
सम्यक्स्व
- जिस प्रकार अलंकारों अर्थात् आभूषणों से मनुष्य का शरीर शोभित होता है, उसी प्रकार निम्नलिखित पाँच गुण रूपी आभूषणों से सम्यक्वी शोभा पाता है-:
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(१) धर्म में कुशलता - कुशलता-चतुरता के साथ किया हुआ प्रत्येक कार्य roar होता है | ara कार्य करने वाले अपने अभीष्ट कार्य को सम्पन्न करने के लिए सर्वप्रथम कुशलता प्राप्त करते हैं और फिर अपने श्रमीट कार्य में उसका सदुपयोग करके अपने कार्य को अच्छा बनाने का प्रयत्न करते हैं । ऐसा करने वाले धीरे-धीरे अपने कार्य को बहुत अच्छा बना सकते हैं और किसी के छल में आकर ठगे भी नहीं जाते। इसी प्रकार सम्यक्त्वी भी अपने धर्म कार्य को समुचित और अच्छा बनाने के लिए प्रथम गीतार्थ गुरु से शास्त्रों का सम्यग्ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान प्राप्त होने से वह धर्ममार्ग में चतुर बन जाता है और फिर उस ज्ञान के प्रभाव से ज्ञान, दर्शन, चारित्र, रूप धर्म की प्रभावना करने के लिए अनेक नवीन-नवीन युक्तियों की योजना करता है । अपने उपदेश में, व्रत में, तपस्या में, कुशलता बता कर भव्यात्माओं के मन को अपनी ओर आकर्षित करता है । इस प्रकार कुशल बना हुआ सम्यक्त्वी पाखण्डियों के कुतर्कों से छला नहीं जाता। अपनी उत्पात बुद्धि से उनके कुतर्क का खण्डन करके अपने प्रभावशाली तर्कों से सत्य पच की स्थापना करता है ।
(२) तीर्थ की सेवा - साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका, यह चार तीर्थ हैं । इनको धर्माराधन के कार्य में सहायता देना, इनकी सेवा-भक्ति
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* मकसूदाबाद - अजीमगंज : निवासी बाबू घनप्रतिसिंहजी की तरफ से प्रकाशित 'नन्दिसूत्र के पृष्ठ : २२४ पर कहा है