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* जैन-तत्त्व प्रकाश &
(३) निर्वेग - आरंभ - परिग्रह से निवृत्त होना निर्वेग कहलाता है । आरंभ-परिग्रह घोर अनर्थ के कारण हैं, जन्म-मृत्यु को बढ़ाने वाले हैं, दुर्गति के दुःखों के दाता हैं, पाप के मूल हैं, क्षमा शील सन्तोष आदि गुणों को दावानल के समान भस्म करने वाले हैं, मित्रता के नाशक हैं, वैर-विरोध बढ़ाने वाले हैं, इनके सिवाय अनेक अन्य अवगुणों के भंडार हैं। इनका त्याग करने से ही आत्मा के निज गुणों का विकास होता है। ऐसा जान कर सम्यक्त्वी जीव इन्हें निरन्तर कम करने की चेष्टा करते रहते हैं । और पाँचों इन्द्रियों के भोगोपभोग की सब सामग्री, राज्य आदि महान् ऋद्धि, तथा अन्य प्रकार के ऐश्वर्य को प्राप्त करके भी उसमें आसक्त नहीं होते हैं । बे सदैव रूक्ष वृत्ति (उदासीन भाव ) में रमण करते रहते हैं ।
(४) 'अनुकम्पनम् - अनुकम्पा अर्थात् किसी प्राणी को दुखी देख कर उसके प्रति दया होना, दु:ख को दूर करने के लिए प्रवृत्ति करना, अनुकम्पा है । कहा है
सभ्वं सर्वत्र चित्तस्य, दयार्द्रत्वं दयावतः । धर्मस्य परमं मूल - मनुकम्पा प्रवक्ष्यते ॥
अर्थात् — महान् पुरुषों का आदेश है कि धर्म का उत्कृष्ट मूल अनुकम्पा ही है । यह मूल धर्मात्मा पुरुष के अन्तःकरण में होता है । अतएव सुख के अभिलाषी जीवों पर दुःख पड़ा देख कर उनके चित्त में अनुकम्पा उत्पन्न होती है । तब वे बेचारे दुखी जीवों का यथाशक्ति सुखोपचार करके उन्हें सुखी बनाते हैं । तीर्थंकर भगवान् अपने वचनातिशय से ऐसी देशना फरमाते हैं जो सब जीवों की समझ में आ जाय । साधु क्षुधा, तृषा, शीत, ताप मार्गातिक्रमण आदि के घोर कष्ट सहन करके ग्राम-ग्राम में उपदेश देते फिरते हैं। इसका मुख्य प्रयोजन संसार के प्राणियों को शारीरिक और मानसिक दुःखों से मुक्त होने का उपाय बतलाना ही है । यह भी अनुकम्पा ही है । दुःखी जीव को देख कर उस पर कदापि अनुकम्पा उत्पन्न न होना अभव्य का लक्षण है । अंगारमर्दनाचार्य के समान, इस समय कितनेक जैना
पाटलिपुर नगर के राजा ने पवखी के पोषध मे स्वप्न देखा कि ५००
हस्तियों