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दिग्दर्शन
श्रीस्थानांग सूत्र के दूसरे ठाणे में कहा है
धम्मेदुविहे पण, जहा - सुयधम्मे चेव, चरित्तधम्मे चेव ।
अर्थात् श्रमण भगवान् महावीर ने धर्म दो प्रकार के कहे हैं — श्रुतधर्म
और चारित्रधर्म । इन दो प्रकार के धर्मों में से श्रुतधर्म (सूत्रधर्मं ) का विस्तृत कथन द्वितीय खंड के दूसरे प्रकरण में किया जा चुका है । अत्र आगे चारित्रधर्म का कथन किया जायगा । जो धर्म नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव, इन चार गतियों से तार कर पाँचवीं मोक्षगति में पहुँचाता है अथवा क्रोध, मान, माया लोभ रूप चार कषायों से छुड़ा कर आत्मा को निर्विकार, निरंजन, निस्ताप बनाता है, वह चारित्र ( चारि + तर) कहलाता है ।
भगवान् ने चारित्रधर्म के भी दो प्रकार कहे हैं— सर्वविरति चारित्र और देशविरति चारित्र | इनमें से सर्वविरति रूप चारित्र के धारक साधु होते हैं। उनके श्राचार का विस्तारपूर्वक कथन प्रथम खंड के तीसरे, चौथे और पाँचवें प्रकरण में किया जा चुका है। शेष रहे देशविरति के भी दो भेद हैं— सम्यक्त्व और देशसंयम । इन दोनों का कथन इस द्वितीय खंड के चौथे और पाँचवें प्रकरण में किया जायगा । तत्पश्चात् 'अन्तिम शुद्धि' नामक छठे प्रकरण में सम्यष्टि, देशविरत (श्रावक) और सर्वविरत अर्थात् साधु को अपने जीवन के अन्त में (आयु के अंतिम काल में ) किस प्रकार श्रात्मशुद्धि करनी चाहिए, यह कथन करके ग्रंथ समाप्त किया जायगा ।
मिथ्यात्व का नाश होने पर ही सम्यक्त्व की प्राप्ति है । श्रतएव तीसरे प्रकरण में मिथ्यात्व का स्वरूप बतलाकर अब चौथे प्रकरण में सम्यare या समति का निकमच किया जाता है।