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® जैन-तत्त्व प्रकाश ®
यही दशा उस उतावले मनुष्य की है , जो धर्मक्रिया के फल की तत्काल अपेक्षा करता है।
कोई-कोई धर्मात्मा दुःखित अवस्था में देखे जाते हैं, सो वह दुःख उस समय की जाने वाली करणी का फल नहीं है, किन्तु पूर्वोपार्जित कर्मों का ही फल समझना चाहिए। धर्म तो निश्चय से सुख का ही दाता है। किन्तु पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों का क्षय हुए बिना शुभ कर्मों का उदय किस प्रकार होगा ? वास्तव में ऐसा नहीं हो सकता । जिस प्रकार शारीरिक नीरोगता के लिए वैद्य पहले जुलाब देकर कोठा साफ करता है, फिर औषध देकर और पथ्य का पालन करवाकर नीरोग करता है, उसी प्रकार धर्म करते हुए जो दुःख होता है, वह जुलाब के समान आत्मशुद्धि कारक है। शुद्धि होने पर अशुभ कर्मों का नाश होते ही तत्काल सुख की प्राप्ति हो जायगी। धर्मकरणी का फल सुखरूप होगा, इस विषय में लेश मात्र भी संशय नहीं करना चाहिए।
श्रीउववाई सूत्र के उत्तरार्धविभाग में, करणी के फल के सम्बन्ध में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने, गौतम स्वामी के प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार दिया है:
(१) ग्राम (जिसके चारों ओर धूल का कोट हो) में, पाकर (सुवर्ण आदि धातुओं की खान के पास की वस्ती में), नगर (जहाँ कर न लगता हो) में, कर्वट (मध्यम वस्ती वाले ग्राम-कसबे) में, मंडा (शहर के पास की वस्ती) में, द्रोणमुख (जहाँ जाने के लिए जल मार्ग भी हो और स्थलमार्ग भी हो-बंदर) में, पाटन (जहाँ सभी प्रकार के पदार्थ मिल सकते हों) में, आश्रम (तापसों के निवास स्थान) में, संवाह (पहाड़ी वस्ती) में, तथा सन्निवेश (गुवालों की वस्ती) में, आदि स्थानों में रहने वाले मनुष्यों को आहार-पानी नहीं मिलने के कारण भूख-प्यास सहन करनी पड़े, स्त्री आदि न मिलने से ब्रह्मचर्य पालना पड़े, मरुस्थल जैसे प्रान्त में विशेष पानी न मिलने के कारण स्नान किये बिना ही रहना पड़े, वस्त्र और स्थान न मिलने से सर्दी, गर्मी, डांसमच्छर-खेटमह आदि का दंश सहन करना पड़े, इस प्रकार अझाम (विना