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* जैन-तत्व प्रकाश
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स्नान, शृंगार, शब्दादि पंचेन्द्रियों के विषय आदि का परित्याग कर दिया है । वे पाँच महाव्रतों, पाँच समितियों और तीन गुप्तियों आदि के विशुद्ध पालक हैं। जिनेश्वर भगवान् की आज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करते हैं । ऐसे साधु समाधिभाव से आयुष्य पूर्ण होने पर अगर समस्त कर्मों का क्षय हो गया हो तो मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । श्रर थोड़ कर्म शेष रह जाएँ तो ३३ सागरोपम आयु वाले सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देव होते हैं और वहाँ से चय कर आगामी भव में मोक्ष प्राप्त करते हैं ।
(१६) उक्त ग्राम आदि में विचरने वाले जो महात्मा राग, द्वेष, विषय, कषाय, मोह-ममत्व आदि कर्मबन्ध के हेतुओं का सर्वथा परित्याग करके यथाख्यात चारित्र व शुक्लध्यान से सब कर्माशों का क्षय कर डालते हैं वे मोक्ष प्राप्त करते हैं ।
भव्य जीवो ! श्रीउवचाई शास्त्र के इस प्रमाण से निश्शंक बनो । विश्वास रक्खो कि करणी का फल अवश्य प्राप्त होगा। जिन भगवान् की आज्ञा में चलने से संसार संक्षिप्त बनता है, और आज्ञा बाहर की शुभ करणी से पुण्य रूप फल की प्राप्ति होती है । इसी प्रकार अशुभ करणी से पाप रूप फल की प्राप्ति होती है । इस प्रकार श्रद्धालु बनकर विचिकित्सा दोष से अपने सम्यक्त्व को दूषित मत होने दो। जिनेन्द्र भगवान् की श्राज्ञा के अनुसार क्रिया करके परमानन्दी परम सुखी बनने का प्रयत्न करना चाहिए ।
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(४) परपाखण्डप्रशंसा - जैन के सिवाय अन्य पाखंडियों व्रतधारियों की सारंभी क्रिया, मिथ्याडम्बर, अज्ञानपूर्वक सहन किये जाने वाले कायक्लेश आदि की प्रशंसा करना परपाखण्डप्रशंसा दोष है । सम्यक्त्वी इस दोष का भी सेवन नहीं करते हैं। क्योंकि सारंभी क्रिया का अनुमोदन करने वाला भी उस पापारंभ के भाग का अधिकारी होता है । इसके अतिरिक्त ऐसा करने से सम्यग्दृष्टियों के परिणाम भी उस श्रोर आकर्षित होते हैं, जिससे मिथ्यात्व की वृद्धि होती है और सम्यक्त्व का घात होता है ।
(५) परपाखण्ड संस्तव - नमक के सम्बन्ध से दूध फटकर बिगड़ जाता है। वह न अच्छा दूध रहता है, न उससे मक्खन ही निकलता है और न उसकी