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* जैन-तत्व प्रकाश
ही आयुष्य पूर्ण करें तो उत्कृष्ट २२ सागरोपम की आयु वाले बारहवें देव - लोक में देव होते हैं ।
(१३) उक्त ग्राम आदि में रहने वाले, जो जिनेश्वर के वचन का उत्थापन करते हैं, विपरीत रूप से परिणत करते हैं, जो (१) जमालि (२) तिष्यगुप्त (३) आषाढाचार्य (४) श्रश्वमित्र (५) गर्गाचार्य ( ६ ) गोष्ठा महिल (७) प्रजापति, इन सात निहूनवों के समान और भी जो कदाग्रही होते हैं, वे व्यवहार में तो जैनधर्म की क्रिया के पालक होते हैं, किन्तु अपने शुभ परिणामों से मिथ्यात्व का उपार्जन करके मिथ्यात्वी बन जाते हैं और दुष्कर करनी के प्रभाव से कदाचित् उत्कृष्ट २१ सागरोपम की स्थिति वाले नवग्रेवेयक में देव हो जाते हैं ।
(१४) उक्त ग्राम यादि में रहने वाले कितनेक मनुष्य मिथ्यात्वं का वमन करके चतुर्थ गुणस्थानावलम्बी सम्यग्दृष्टि बने हैं और कितनेक देशविरति का आचरण करके श्रावक बने हैं । वे श्रुतधर्म और चारित्रधर्म का यथाशक्ति स्वयं पालन करते हैं, दूसरों से पालन कराते हैं और सम्यक्त्व तथा व्रतों में अतिचार भी नहीं लगाते हैं, अंतः वे सुशील और सुव्रती होते हैं । वे शुद्ध चित्त से श्रमणों साधुओं की भक्ति करने के कारण श्रमणोपासक कहलाते हैं ।
ऐसे श्रावकों में से कितनेक श्रावक प्राणातिपात आदि पापों का, आरंभ-समारंभ का वध बन्धन ताड़न तर्जन आदि करने का त्याग करते हैं, वे स्नान, श्रृंगार, शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श रूप इन्द्रिय विषयों के सेवन आदि से निवृत्त हो चुके हैं और कितने इन विषयों से निवृत्त नहीं भी हुए हैं, किन्तु वे भी जीव, जीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया अधिकरण (कर्मबंध के कारण शस्त्र आदि), बंध और मोक्ष तत्वों के ज्ञाता
* इन तेरह कलमों में से १०वी कलम में कहे जीवों के सिवाय और सब जीवों की करी जिनाशा से बाहर है, अतः वे आराधक नहीं कहे गये हैं। आगे की कलमों में क हुए संजीवक होते हैं। इनकी धर्म करणी जिन. भगवान की आज्ञा में है.! ..