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सम्यक्त्व
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छाछ बनती है । वह किसी भी काम का नहीं रहता । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि अगर पाखण्डियों के परिचय में रहे तो संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति' अर्थात् संगति से दोष और गुण उत्पन्न होने हैं, इस उक्ति के अनुमार मम्यग्दृष्टि भी भ्रष्ट हो जाते हैं। वे न तो इधर के रहते हैं और न उधर के रहते हैं, न आत्मार्थ का साधन कर सकते हैं । जिस प्रकार सती स्त्री, व्यभिचारिणी के संसर्ग से सतीत्व से भ्रष्ट हो जाती है और परपुरुष की प्रशंसा से बदनाम होती है, उसी प्रकार इन दोनों अतिचारों के सम्यग्दृष्टि भी अपने को दूपित बना लेता है।*
इन पाँच दोषों का विशेष सेवन करने से सम्यक्त्व का नाश होता है और थोड़े सेवन से सम्यक्त्व मलीन होता है। ऐसा जानकर विवेकवान् सम्यक्त्वी पाँचों ही दूषणों से अपने आपको बचाकर सम्यक्त्व को निर्मल रखते हैं।
छठा बोल-लक्षण पाँच
जैसे तेज प्रकाश से सूर्य पहचाना जाता है और शीतल प्रकाश से चन्द्रमा पहचाना जाता है, उसी प्रकार निम्नोकत पाँच लक्षणों द्वारा सम्यक्वी जीव की पहचान होती है:
(१) शम (सम)-शत्रु पर, मित्र पर और शुभाशुभ वस्तुओं पर सम
* बोलिये न और बोल डोलिये न ठौर ठौर,
संगत की रंगत एक लागि है पै लागि है। जाय बैठे बागन में वास आवे फूलनि की,
कामिनी की सेज काम जागि है प जागि है। काजल की कोठरी में कैसो हू सयानो पैसे,
काजल की एक रेख लागि है पै लागि है। कहे कवि कैसोदास इतने का यह विचार,
कायर के संग सरा भागि है पै भागि है।