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बन कर जिनप्रणीत धर्म में पूरी तरह निश्चल बने हैं। उनकी निश्चलता ऐसी है कि देव, दानव, मानव, आदि कोई भी उन्हें ग्रहण किये हुए धर्म से नहीं डिगा सकता । वे जिनमार्ग में कदापि शंका, कांक्षा, विचिकित्सा नहीं धारण करते हैं | उनकी नस-नस में जैनधर्म की श्रद्धा व्याप्त हो गई है । शास्त्र के अवसर पर शास्त्रश्रवण करते हैं और पठन के अवसर पर पठन करते हैं । शास्त्र के अर्थ और परमार्थ को सम्यक् प्रकार से हृदय में धारण करते है । कदाचित् कहीं संशय हो तो गीतार्थों से पूछकर निर्णय कर लेते हैं । जब कभी किसी से वार्तालाप करने का प्रसंग आता है तो वे कहते हैंदेवानुप्रिय ! एक मात्र जिनमत ही अर्थ और परमार्थ रूप है, सारभूत है, और सब अर्थ तथा असारभूत हैं ।
* सम्यक्त्व *
ऐसे श्रावकों के हृदय स्फटिक के समान निर्मल होते हैं । वे अनाथों और अपंगों के पोषणार्थ घर के द्वार खुले रखते हैं । वे अपने सदाचार की ऐसी छाप दूसरों पर लगा देते हैं कि कदाचित् राजा के भण्डार में या अन्तःपुर में चले जाएँ तो भी उन पर कभी किसी को अविश्वास नहीं होता है ।
वे अष्टमी, चतुर्दशी, पक्खी, तथा तीर्थंकरों के कल्याणक की तिथियों को पूर्ण पौषधत्रत करते हैं । वे उदार परिणाम से साधुओं को देने योग्य शुद्ध अन्न, पानी, खाद्य, स्वाद्य आदि आहार, वस्त्र, पात्र, विछाने का पयाल, रजो भेषज, पथ्य, पाट, वाजौठ, मकान (स्थानक) आदि अवसर मिलने पर देते हैं ।
ऐसे श्रावक आयु के अन्त में आलोचना - निन्दा युक्त समाधिपूर्वक शरीर त्याग कर उत्कृष्ट २२ सागरोपम की श्रायु वाले वारहवें देवलोक में देव होते हैं ।
(१५) उक्त ग्राम आदि में विचरने वाले कितनेक महात्मा ऐसे हैं जिन्होंने तीन कर तीन योग से आरंभ का और परिग्रह का तथा अठारह पापों का त्याग कर दिया है। पचन, पाचन, ताड़न, तर्जन, वध-वन्धन,