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(१०) उक्त ग्राम आदि में रहने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच - पानी में रहने वाले मत्स्य आदि जलचर, पृथ्वी पर चलने वाले गाय बैल आदि स्थलचर, आकाश में उड़ने वाले हंस आदि खेचर में से किसी की विशुद्ध परिणामों की प्रवृत्ति होने के कारण उनके ज्ञानावरणीय कर्म का विशेष क्षयोपशम हो जाय तो उन्हें जातिस्मरण ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। उस जातिस्मरण से वे जानने लगते हैं कि मैं ने पहले मनुष्य के भव में व्रतप्रत्याख्यान करके उसे भंग कर डाला था । इस कारण मैं मर कर तिर्यच गति को प्राप्त हुआ हूँ । इस जन्म में भी अगर मैं अपनी आत्मा का कुछ सुवार कर लूँ तो अच्छा है। इस प्रकार सोचकर जातिस्मरण से पहले लिये हुए अतों आदि का स्मरण करते हैं और फिर उनका पालन करते हैं । सामायिक, पौषध व्रत आदि करनी करते हैं । वे आयु के अन्त में संलेखना के साथ समाधिमरण करके अठारह सागरोपम की आयु वाले आठव देवलोक में देव होते हैं ।
(११) उक्त ग्राम श्रादि में विचरने वाले श्राजीवक श्रमण अर्थात् गोशालक के अनुयायी श्रमण, जो अनेक प्रकार के श्रभिग्रह धारण करते हैं, जैसे कि एक, दो, तीन यावत् अनेक घरों के अन्तर से भिक्षा ग्रहण करेंगे, या विद्युत् चमकेगी तो भिक्षा ग्रहण करेंगे, अन्यथा नहीं; तथा कुछ व्रतनियम का भी आचरण करने वाले होते हैं; वे श्रायु पूर्ण करके उत्कृष्ट २२ सागरोपम की आयु वाले बारहवें देवलोक में उत्पन्न होते हैं ।
(१२) उक्त ग्राम आदि में विचरने वाले जैनधर्म के साधु, जो पंचमहाव्रत आदि का तो पालन करते हैं, किन्तु जो मद में के होते हैं, अपनी स्तुति और पर की निन्दा करते हैं, मंत्र, तंत्र, यंत्र, ज्योतिष, निमित्त, और
आदि की प्ररूपणा करते हैं, पादप्रक्षालन करके तथा वस्त्र आदि से शरीर की विभूषा करते हैं, वे इन दोषों की आलोचना निन्दा किये बिना
छ पानी में रहकर सामायिक प्रतिक्रमण किस प्रकार कर सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जलचर जीव सामायिकादि व्रत का काल पूर्ण न हो जाय तब तक हलनचलन नहीं करने निश्वल रहते हैं । इसी से उनका मत पल जाता हैं ।