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ॐ जैन तत्व प्रकाश
अर्थात् - कोई अज्ञानी करोड़ पूर्व वर्ष पर्यन्त निरन्तर महीने - महीने का उपवास करे, पारणे में कुशाग्र पर आवे उतना आहार करे और अंजलि में वे उतना पानी पीए, तो अज्ञानी जीव का इतना भारी तप भी सम्य
ष्ट के नवकारसी (दो घड़ी) के तप की बराबरी नहीं कर सकता । क्योंकि सम्यग्दृष्टि का तप भवभ्रमण को घटाने वाला होता है और अज्ञानी का तप संसार की वृद्धि करने वाला होता है ।
परमार्थ को न जानने वाला कोई सम्यग्दृष्टि पुरुष कदाचित् विचार करे कि इतना दुष्कर तप तो अपने मत में नहीं है; इसलिए यह तप भी मोक्ष का मार्ग है । इस मार्ग को हमें भी स्वीकार करना चाहिए। तो ऐसा विचार करने से ही उसके सम्यक्त्व में कांक्षा दोष लगता है । दृढ़ सम्यक्त्वी पुरुष जानता है कि मोक्ष के मार्ग दो नहीं हैं। सच्चा मोक्षमार्ग तो वीतराग प्रणीत दयामूलक धर्म ही है । वे गान-तान, नृत्य, ख्याल, स्नान, श्रृंगार तथा अन्य हिंसक क्रियाओं से होने वाले अन्य मतावलम्बियों के फितूर से कभी व्यामोह को प्राप्त नहीं होते । वे वीतरागप्रणीत जैन धर्म के सिवाय किसी भी अन्य मत की कांक्षा वाञ्छा नहीं करते हैं ।
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(३) विचिकित्सा - कितनेक जैनधर्मावलम्बी उपवास श्रादि तप, सामायिक आदि धर्मक्रिया और दान आदि धर्म का स्वयं पालन करते हैं अन्य को पालन करते देखते हैं; किन्तु इस लोक सम्बन्धी कुछ भी फल की प्राप्ति न होती देखकर, कई - एक धर्मात्माओं को दुखी देखकर मन में वहम करने लगते हैं कि इतनी धर्मक्रिया की गई, मगर उसका फल तो कुछ भी दिखाई नहीं दिया ! ऐसी दशा में धर्मार्थ जो इतना कष्ट उठाया जा रहा है यह सब निरर्थक हो तो नहीं है ? अमुक को धर्म करते इतने दिन हो गए,
अज्ञान तप करने वाला इन सोलह कलाओं में से प्रथम कला में ही रहता है । भले ही वह चारों वेदों और षट शास्त्रों में पारगामी हो, पर सम्यग्दर्शन के बिना उसका ज्ञान सम्यक नहीं होता, इसलिए वह गिनती में नहीं आता। क्योंकि जब तक जीव और जीव का विवेक न हो जाय, तत्र तक समग्र विद्या अविद्या ही । इसलिए सुश्राख्यात धर्म की जिसको प्राप्ति हुई है, उसी की करणी उक्त कलाओं को प्रकट कर सकती है। उसी की अपेक्षा से उक्त कथन किया है ।