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[ ५७६ धर्मक्रिया की जाती है । अतः वास्तविक धर्म विशुद्ध उपयोग में ही है । इस प्रकार निश्चय में आत्मावलंबी के यह सम्यक्त्व के तीन तत्व होते हैं। ऐसी जिसकी श्रद्धा हो उसी को निश्चय समकिती जानना चाहिए ।
* सम्यक्त्व **
निश्चयसम्यक्त्व का लक्षण ( छप्पय छन्द )
राग द्वेष अरु मोह नहीं निज माहीं निरखत, दर्शन ज्ञान चरित्र शुद्ध आम-रस चक्खत । परद्रव्यों से भिन्न चीह्न चेतन पद मंडित, वेद सिद्ध समान शुद्ध निज रूप अखण्डित | सुखं अनन्त जिस पद वसत, सो निश्चय समकित महत । भये विचक्षण भविक जन, श्रीजिनन्द इस विधि कहत ||
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अर्थात् - जिस जीव को निश्चयसम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है, वह जीव अपने आत्मा में राग, द्वेप और मोह को देखता ही नहीं है । यह तीनों दोष अदृश्य से उसके आत्मा में मन्द पड़ जाते हैं, अर्थात् वह इन दोषों को उत्पन्न नहीं होने देता है । वह दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप आत्मा के गुण रूपी परम रस का ही आस्वादन करता है । आत्मा का और पुद्गल का असली स्वरूप समझ कर, अपने आत्मा को पुद्गल परिणति से अलग कर लेता है और आत्मा के गुणों में लीन रहता है। शुद्ध और अखंडित श्रात्मज्योति को प्रकट करके देह में रहता हुआ भी देहातीत हो सिद्ध समान सुख का अनुभव करता है । इस प्रकार यह निश्चयसम्यक्त्व अनन्त सुखों के स्थान सिद्धगति को प्राप्त कराने वाला है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् का आदेश है ।
(५) व्यवहारसम्यक्त्व - अनन्त चतुष्टय, अष्ट महाप्रातिहार्य आदि गुणों से युक्त अरिहंत भगवान् को देव मानना, छत्तीस गुणों तथा सचाईस गुणों से युक्त निर्ग्रन्थ को गुरु मानना और केवली - प्ररूपित दयामय कर्त्तव्य को धर्म मानना व्यवहारसम्यक्त्व है ।