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* सम्यक्त्व
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(१) जैसे हृष्टपुष्ट नवयुवक पुरुष, रूप-लावण्य से सम्पन्न सोलह वर्ष की नवयुवती के हाव-भाव, विलास और समागम में आसक्त होता है उसी प्रकार भव्य सम्यग्दृष्टि जीव जिनवाणी को श्रवण करने में आसक्त होता है। वह जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कथित शास्त्रों का पठन या श्रवण करने में तन्मय हो जाता है ।
(२) जिसकी जठराग्नि प्रदीप्त होती है, ऐसा स्वस्थ पुरुष एक प्रहर भी भूखा नहीं रह सकता। दैवयोग से उसे तीन दिन या सात दिन तक भूखा रहने का प्रसंग आजाय, और उसके पश्चात् क्षीर आदि मधुर एवं मनोज्ञ पदार्थ प्राप्त हों; तो जैसे वह उन पदार्थों का रुचि के साथ सेवन करता है, उसी प्रकार सम्यक्त्वी पुरुप जिनवाणी को श्रवण करने के लिए तृषित रहता है । जब जिनवाणी को श्रवण करने का अवसर पाता है तो प्रेमपूर्वक भक्तिभाव के साथ श्रवण करता है और श्रवण करके अपने जीवन को धन्य मानता है।
(३) जैसे कोई तीव्रबुद्धि और गहरी जिज्ञासा वाला पुरुष विद्याभ्यास का इच्छुक हो और उसे शान्त, तेजस्वी, औत्पातिकी आदि बुद्धियों से सम्पन्न पढ़ाने वाले विद्वान् पण्डित का सुयोग मिल जाय, तो जैसे वह पुरुष हर्ष और उत्साह के साथ विद्या ग्रहण करता है और पढ़ी हुई विद्या को बार-बार स्मरण-चिन्तन करके अपने हृदय में चिरस्थायी बना लेता है; उसी प्रकार सम्यक्त्वी जीव हर्ष और उत्साह से युक्त होकर जिनवाणी को ग्रहण करता है और बार-बार स्मरण, मनन, निदिध्यासन करके उसके रस को चिरस्थायी बनाता है ।
जैसे वचन सुनने में आते हैं प्रायः वैसे ही विचार बन जाते हैं और फिर वे विचार कालान्तर में उस व्यक्ति की वैसी ही प्रवृत्ति के कारण बनते हैं। शुद्ध कथन के श्रवण से शुद्ध विचार और अशुद्ध कथन के श्रवण से अशुद्ध विचार उत्पन्न होते हैं । किन्तु शुद्ध विचारों की अपेक्षा अशद्ध विचारों का असर बहुत शीघ्र होता है । प्रत्यक्ष देखते हैं कि ऊपर चढ़ने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है और विलम्ब भी लगता है, पर नीचे गिरने में