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(१) परमत्थ संथ - आत्मा का परम उत्कृष्ट अर्थ मोक्ष है । उसकी प्राप्ति और प्राप्ति के उपाय ज्ञानादि रत्नत्रय भी परमार्थ कहलाते हैं । उनके जो ज्ञाता हों, उनका परिचय करना -- सत्संग करना जैसे चंदनवृक्ष के आसपास उगे हुए बंबूल के वृक्ष भी सुगंधित हो जाते हैं, और नीम के नज़दीक के श्रम के फलों में भी कटुकता परिणत हो जाती है, उसी प्रकार सत्संगति से सद्गुणों की और कुसंगति से दुर्गुणों की प्राप्ति होती है । इसके अतिरिक्त यह भी याद रखना चाहिए कि जितनी जल्दी विष अपना प्रभाव दिखलाता है, उतनी जल्दी औषध असर नहीं करती। इसी प्रकार कुसंगति का असर बहुत शीघ्र होता है और उसका परिणाम भी विप के समान दुःखदाता होता है; जब कि सत्संगति का प्रभाव धीरे-धीरे होता है किन्तु उसका परिणाम उत्तम औषध के समान सुखदाता होता है ।
ॐ सम्यक्त्व
(२) सुदिपरमत्थसेवा - जिन्होंने सुदृष्टि से सम्यग्दृष्टि से परमार्थ को जान लिया है, ऐसे रत्नत्रय के धारक की सेवा-भक्ति करना, संगति करना । क्योंकि जैसे राजा की सेवा करने वाला राज- ऋद्धि का अधिकारी बनता है, उसी प्रकार परमार्थ के ज्ञाता, सुदृष्टिमान का जो उपासक होता है, वह भी परमार्थ का वेत्ता और सम्यग्दृष्टि बन जाता है ।
(३) वावण्णवज्जणा – जिसने सम्यग्दर्शन का वमन कर दिया है। अर्थात् जिसने सम्यक्त्व का त्याग करके मिथ्यात्व को स्वीकार कर लिया है, ऐसे भ्रष्ट जनों की संगति न करना । क्योंकि जैसे व्यभिचारिणी स्त्री, सती स्त्रियों पर झूठे कलंक चढ़ाती है उसी प्रकार सम्यक्त्व से भ्रष्ट लोग सच्चे धर्मात्मा साधु आदि चारों तीर्थों पर अनहोते दोष लगाते हैं । अज्ञ भोले लोगों के सामने सद्गुणों को भी दुर्गुण बतलाने लगते हैं और उन्हें भ्रम में फँसाकर भ्रष्ट कर देते हैं। तथा जैसे एक दीवाला निकालने वाला
क दीवाला निकालने वालों के नाम हाजिर करके अपने दोष को छिपाना चाहता है, उसी प्रकार धर्मभ्रष्ट पुरुष अनेक सत्पुरुषों के भी, अनहोते दुर्गुणों को कह कर दूसरों को भी भ्रष्ट करता है ।
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दृष्टान्त - किसी दुर्बुद्धि मनुष्य को व्यभिचार करने के अपराध में राजपुरुषों ने पकड़ा और उसकी नाक काट कर देश निकाला दे दिया ।