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सम्यक्त्व
गाथा:नत्थि चरित् सम्मचविहवं, दसणे उ मइयम्वं । सम्मत्तचरिचाई, जुमवं पुव्वं च सम्मत्तं ॥
-श्रीउत्तराध्ययन, अ. २८ गा. २६ अर्थात्-जिन जीवों को सम्यक्त्व-धर्म की प्राप्ति नहीं हुई है, उन्हें चास्त्रि-धर्म की प्राप्ति नहीं होती । जिनको सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गई है, उनमें से कितनेक जीव चारित्रधर्म को अंगीकार कर सकते हैं—कर लेते हैं और कितनेक उसी भव में चारित्र नहीं भी धारण करते । इसलिए सम्यक्त्व के होने पर चारित्र की भजना कही गई है। मगर चारित्र के होने पर सम्यक्त्व की लियमा है । अर्थात् चारित्र के होने पर सम्यक्त्व होना ही चाहिए । सम्यक्त्व के किना चास्त्रि, सम्यकचारित्र नहीं कहलाता और उससे सकाम निर्जरा नहीं होती । श्रतएव आत्मशुद्धि की दृष्टि से, सम्यक्त्व से रहित क्रिया निरर्थक है। सम्यकत्व के प्राप्त होने पर अन्य सब गुण प्राप्त हो जाते हैं । यथा:
“नादंसणिस्स नाणं, नाखेण विना न हुँति चरणगुणा । - अशुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि श्रमोक्खस्स निव्वाणं ॥
अर्थात-सम्यगदर्शन के विना सम्यगज्ञान की प्राप्ति नहीं होती* और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति विना चारित्र की प्राप्ति नहीं होती, चारित्र के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती और मोक्ष-प्राप्ति के बिना कर्मजन्य दुःखों से छुटकारा नहीं मिलता । तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्व से ज्ञान की प्राप्ति होती है, ज्ञान से चास्त्रि की प्राप्ति होती है और चारित्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
.* वस्तुतः सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन साथ-साथ ही उत्पच होते और साथ-साथ ही रहते हैं। सम्यग्दर्शन से पहले ज्ञान मिश्याज्ञान होता है । सम्यक्त्व की उत्पत्ति होते ही ज्ञान, सम्यग्ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार दोनों में कार्य-कारणभाव है। ऐसी स्थिति में पहले दर्शन था पहले ज्ञान का आग्रह निरर्थक है।