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® जैन-तत्त्व प्रकाश
इस प्रकार क्रम से सर्व गुणों की प्राप्ति होने से जीव समस्त दुखों से मुक्त हो जाता है । अतएव समस्त गुणों के मूलभूत सम्यक्त्व को सब से पहले प्राप्त करना आवश्यक है । सम्यक्त्वप्राप्ति का उपाय और सम्यक्त्व का स्वरूप इस प्रकार है:
तहियाणं तु भावाणं, सब्भावे उवएसणं । भावेणं सद्दहंतस्स, सम्मचं, तं वियाहियं ॥
-श्रीउत्तराध्ययन, २८, १५ सम्यक्त्व की प्राप्ति दो प्रकार से होती है । 'वनिसर्गादधिगमावा ।। अर्थात् किसी जीव को दूसरे के उपदेश के बिना ही नैसर्गिक रूप सेस्वभाव से ही सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है और किसी जीव को अधिगम से अर्थात् गुरु आदि के उपदेश से सम्यक्त्व प्राप्त होता है। यह दोनों निमित्त बाह्य निमित्त हैं । अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ तथा दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियाँ-इन सात प्रकृतियों का क्षयोपशम, क्षय या उपशम, सम्यग्दर्शन का अन्तरंग कारण है । इन सात प्रकृतियों का क्षयोपशम होने से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, उपशम होने से औपशमिक सम्यक्त्व और गय होने से क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है । कोई जीव अन्तरंग कारण मिल जाने पर, जातिस्मरण आदि ज्ञान के द्वारा स्वयं ही तत्त्वश्रद्धा रूप सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है और कोई जीव तीर्थंकर भगवान् या सद्गुरु का उपदेश सुनकर जीव अजीव का भेदविज्ञान प्राप्त कर लेता है और तदनुसार प्रदान करके सम्यग्दृष्टि हो जाता है ।*
* लब्धिसार ग्रंथ में मिथ्यात्वी जीव को सम्यक्त्व प्राप्त होने का विधानस प्रकार प्रदर्शित किया है:
संज्ञी, पर्याप्त, मन्दकषायो, भव्य, गुण-दोष के विचार से युक्त, साकार उपयोग में वर्तमान, जागृत अवस्था वाला जीव ही सम्यक्त्व प्राप्ति के योग्य होता है।
___सम्यक्त प्राप्त करने वाले के पाँच लब्धियाँ होती हैं:-१) क्षयोपशम लब्धि (२) पिशुद्धिलब्धि (३) देशनालन्धि (४) प्रयोगलब्धि और (५) करपलब्धि । इन पाँचों का स्वरूप इस प्रकार है