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* सम्यक्त्व *
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सवैया मवस्थिति निकन्द होय कर्मबंध मंद होय, प्रकटे प्रकाश निज आनन्द के कन्द को। हित को दर्शाव होय विन को बढ़ाव होय, उपजै अंकुर ज्ञान द्वितीया के चंद को॥ सुगति-निवास होय कुगति को नाश होय, अपने उत्साह दाह करे कर्म कन्द को । सुख भरपूर होय दोष दुःख दूर होय,
पारौं गुणवन्दक है सम्यक्त्व सुछंद को ॥ १॥ मर्थात्-जिस जीव को जब सम्यक्त्व प्राप्त करने का अवसर आता है, सब प्रथम तो उसकी भव-भ्रमण की स्थिति परिपक्व हुई होनी चाहिए। कों का बंध भी कोडाकोड़ी सागरोपम की स्थिति के अन्दर और वह भी मन्द रसम्म रहना चाहिए । सुख में हर्ष नहीं, दुःख में उदासी नहीं, ऐसी
(१) अनादि काल से संसार में परिभ्रमण करते-करते किसी आत्मा को, किसी समय ऐसा बोग मिलता है कि ज्ञानावरण आदि अष्ट कर्म की प्रशस्त (बुरी) प्रकृतियों के अनुमाग (रस) को, समय-समय में, अनन्त गुणा घटोता-घटाता क्रम से ऊपर आता है, तब पबोपशमनधि प्राप्त होती है।
(२) इस क्षयोपशमलन्धि के प्रताप से अशुभ कर्म का रसोदय घटता है । उसमें संक्लेश परिणाम की हानि होती है और विशुद्ध परिणाम की वृद्धि होती है । विशुद्ध परिणाम की वृद्धि होने से जीव के सातावेदनीय आदि शुभ प्रकृतियों का बंध करने वाले धर्मानुराग रूप एम परिणामों की प्राप्ति होती है । यह विशुद्धिलब्धि है।
(३) इस विशुद्धिलब्धि के प्रभाव से प्राचार्य आदि की वाणी सुनने की अभिलाषा जात होना और उनकी सत्संगति कर के छह द्रव्यों और नवतत्त्वों आदि का ज्ञाता बने तो देशनासाथि।
(४) उक्त तीनों लब्धियों से युक्त बना जीव समय-समय विशुद्धता की वृद्धि करता चा, बाबुकर्म के सिवाय सात कर्मों की स्थिति को एक कोडाकोड़ी सागरोपम से कुछ कम करे। शेष जो स्थिति रही उसे पहले की स्थिति में क्षेपकर घातिक कर्म के अनुभाग (रस) कोको पर्वत के समान कठिन था उसे काष्ठ तथा लता रूप करने की और अधातिक कमों के